Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 122

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 122/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगु देवता - विश्वकर्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - तृतीयनाक सूक्त

    अ॒न्वार॑भेथामनु॒संर॑भेथामे॒तं लो॒कं श्र॒द्दधा॑नाः सचन्ते। यद्वां॑ प॒क्वं परि॑विष्टम॒ग्नौ तस्य॒ गुप्त॑ये दम्पती॒ सं श्र॑येथाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒नु॒ऽआर॑भेथाम् । अ॒नु॒ऽसंर॑भेथाम् । ए॒तम् । लो॒कम् । श्र॒त्ऽदधा॑ना: । स॒च॒न्ते॒ । यत् । वा॒म् । प॒क्वम् । परि॑ऽविष्टम् । अ॒ग्नौ । तस्य॑ । गुप्त॑ये । दं॒प॒ती॒ इति॑ दम्ऽपती । सम् । श्र॒ये॒था॒म् ॥१२२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्वारभेथामनुसंरभेथामेतं लोकं श्रद्दधानाः सचन्ते। यद्वां पक्वं परिविष्टमग्नौ तस्य गुप्तये दम्पती सं श्रयेथाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनुऽआरभेथाम् । अनुऽसंरभेथाम् । एतम् । लोकम् । श्रत्ऽदधाना: । सचन्ते । यत् । वाम् । पक्वम् । परिऽविष्टम् । अग्नौ । तस्य । गुप्तये । दंपती इति दम्ऽपती । सम् । श्रयेथाम् ॥१२२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 122; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. हे (दम्पती) = पति-पत्नी! आप दोनों (अनुआरभेथाम्) = वेद के आदेश के अनुसार इन यज्ञों का प्रारम्भ करो, (अनुसंरभेथाम्) = आरम्भ करके इन यज्ञों में लगे रहो। इन यज्ञों को आरम्भ करना, आरम्भ किये हुए यज्ञों का परित्याग सर्वथा अनुचित है। (एतं लोकम) = यज्ञादि से प्राप्य इस स्वर्गलोक को (श्रद्दधानाः सचन्ते) = श्रद्धावाले-आस्तिक बुद्धिवाले लोग ही सेवन करते हैं, अत: इन यज्ञों में तुम्हारी श्रद्धा बनी ही रहे। आप दोनों [दम्पती] भी श्रद्धावाले बनो और (यत् वां पक्वम्) = आपका जो अन्न अतिथियज्ञ के लिए परिपक्व होता है तथा जो (अग्नौ परिविष्टम्) = हविरूप में अग्नि में प्रक्षिप्त होता है (तस्य) = उस देवयज्ञ और अतिथियज्ञ के (गुप्तये) = रक्षण के लिए (संश्रयेथाम्) = मिलकर उत्तम कर्मों का सेवन करनेवाले बनो। इन अतिथि व देवयज्ञों को करते हुए आप संसार के विषयों में बद्ध होने से बचे रहोगे और अजर व अमर बनकर स्वर्गोपम जीवन को प्राप्त करोगे।

    भावार्थ -

    घर में पति-पत्नी यज्ञों का प्रारम्भ करें। प्रारम्भ किये हुए यज्ञों का त्याग कभी न करें। अतिथि-यज्ञ व देवयज्ञ को सुरक्षित रखते हुए वे सुखी जीवनवाले हों।


     

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top