Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 122

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 122/ मन्त्र 4
    सूक्त - भृगु देवता - विश्वकर्मा छन्दः - जगती सूक्तम् - तृतीयनाक सूक्त

    य॒ज्ञं यन्तं॒ मन॑सा बृ॒हन्त॑म॒न्वारो॑हामि॒ तप॑सा॒ सयो॑निः। उप॑हूता अग्ने ज॒रसः॑ प॒रस्ता॑त्तृ॒तीये॒ नाके॑ सध॒मादं॑ मदेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञम् । यन्त॑म् । मन॑सा । बृ॒हन्त॑म् । अ॒नु॒ऽआरो॑हामि । तप॑सा । सऽयो॑नि: । उप॑ऽहूता: । अ॒ग्ने॒ । ज॒रस॑: । प॒रस्ता॑त् । तृ॒तीये॑ । नाके॑ । स॒ध॒ऽमाद॑म् । म॒दे॒म॒ ॥१२२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञं यन्तं मनसा बृहन्तमन्वारोहामि तपसा सयोनिः। उपहूता अग्ने जरसः परस्तात्तृतीये नाके सधमादं मदेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञम् । यन्तम् । मनसा । बृहन्तम् । अनुऽआरोहामि । तपसा । सऽयोनि: । उपऽहूता: । अग्ने । जरस: । परस्तात् । तृतीये । नाके । सधऽमादम् । मदेम ॥१२२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 122; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! मैं (मनसा) = मनन-विचार के साथ तथा (तपसा) = तप के साथ (सयोनिः) = समान स्थान में निवास करता हुआ (यन्तम्) = जीवन में निरन्तर चलते हुए (बृहन्तम्) = वृद्धि के कारणभूत (यज्ञम् अनु) = यज्ञ के अनुसार (आरोहामि) = ऊपरले और ऊपरले लोक में आरोहण करता हूँ-(पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुह, अन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्। दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वज्योतिरगामहम्) = मननशील व तपस्वी बनकर मनुष्य यज्ञों में प्रवृत्त होता है और उत्कृष्ट गति को प्राप्त करता है। ये यज्ञ उसकी वृद्धि-उन्नति का कारण बनते हैं। २. हे परमात्मन् ! इसप्रकार यज्ञशील बनकर हम (उपहूता:) = आपकी पुकार करते हुए [उपहूतम् अस्य अस्ति इति उपहूतः] आपकी उपासना करते हुए (जरस: परस्तात्) = बुढ़ापे की समासि पर (तृतीये नाके) = प्रकृति व जीवन के क्षेत्र से ऊपर उठकर परमात्मरूप तृतीय मोक्षलोक में [न अकं दुःखम् अस्मिन् इति] (सधमाद मदेम) = आपके साथ आनन्द का अनुभव करें।

    भावार्थ -

    प्रभु की उपासना के साथ यज्ञमय जीवन मोक्ष का साधक है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top