अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 123/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगु
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सौमनस्य सूक्त
ए॒तं स॑धस्थाः॒ परि॑ वो ददामि॒ यं शे॑व॒धिमा॒वहा॑ज्जा॒तवे॑दाः। अ॑न्वाग॒न्ता यज॑मानः स्व॒स्ति तं स्म॑ जानीत पर॒मे व्योमन् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । स॒ध॒ऽस्था॒: । परि॑ । व॒: । द॒दा॒मि॒ । यम् । शे॒व॒ऽधिम् । आ॒ऽवहा॑त् । जा॒तऽवे॑दा: । अ॒नु॒ऽआ॒ग॒न्ता । यज॑मान: । स्व॒स्ति । तम् । स्म॒ । जा॒नी॒त॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥१२३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं सधस्थाः परि वो ददामि यं शेवधिमावहाज्जातवेदाः। अन्वागन्ता यजमानः स्वस्ति तं स्म जानीत परमे व्योमन् ॥
स्वर रहित पद पाठएतम् । सधऽस्था: । परि । व: । ददामि । यम् । शेवऽधिम् । आऽवहात् । जातऽवेदा: । अनुऽआगन्ता । यजमान: । स्वस्ति । तम् । स्म । जानीत । परमे । विऽओमन् ॥१२३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 123; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञरूप शेवधि
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (सधस्था:) = यज्ञवेदि पर मिलकर बैठनेवाले यज्ञशील लोगो! (एतम्) = इस यज्ञ को (वः परिददामि) = तुम्हें देता हूँ। उस यज्ञ को तुम्हारे लिए देता हूँ (तम्) = जिस यज्ञरूप (शेवधिम्) = कोश को (जातवेदाः) = यह यज्ञाग्नि [जातं वेद:-धनं यस्मात्] (आवहात्) = तुम्हारे लिए प्राप्त कराता है। यज्ञ एक कोश है, क्योंकि इसी से पर्जन्यों की उत्पत्ति होकर विविध अन्नों का उत्पादन होगा। २. यह (यजमान:) = यज्ञशील पुरुष (स्वस्ति अनु आगन्ता) = क्रमश: अधिकाधिक कल्याण को प्राप्त होगा। हे यज्ञशील पुरुषो! तुम (तम्) = उस मुझे [परमात्मा को] (परमे व्योमन् जानीत स्म) = इस परम आकाश में सर्वत्र व्याप्त जानो।
भावार्थ -
यज्ञ एक शेवधि-कोश है। यज्ञशील पुरुष उत्तरोत्तर कल्याण को प्राप्त होता है। यह प्रभु को जाननेवाला बनता है।
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