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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 123

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 123/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगु देवता - विश्वे देवाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सौमनस्य सूक्त

    जा॑नी॒त स्मै॑नं पर॒मे व्योम॒न्देवाः॒ सध॑स्था वि॒द लो॒कमत्र॑। अ॑न्वाग॒न्ता यज॑मानः स्व॒स्तीष्टा॑पू॒र्तं स्म॑ कृणुता॒विर॑स्मै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जा॒नी॒त । स्म॒ । ए॒न॒म् । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । देवा॑: । सध॑ऽस्था: । वि॒द । लो॒कम् । अत्र॑ । अ॒नु॒ऽआ॒ग॒न्ता । यज॑मान: । स्व॒स्ति । इ॒ष्टा॒पू॒र्तम् । स्म॒ । कृ॒णु॒त॒ । आ॒वि: । अ॒स्मै॒ ॥१२३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जानीत स्मैनं परमे व्योमन्देवाः सधस्था विद लोकमत्र। अन्वागन्ता यजमानः स्वस्तीष्टापूर्तं स्म कृणुताविरस्मै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जानीत । स्म । एनम् । परमे । विऽओमन् । देवा: । सधऽस्था: । विद । लोकम् । अत्र । अनुऽआगन्ता । यजमान: । स्वस्ति । इष्टापूर्तम् । स्म । कृणुत । आवि: । अस्मै ॥१२३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 123; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. हे (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषो! (सधस्था:) = यज्ञवेदि पर मिलकर बैठनेवाले आप (एनम्) = इस प्रभु को (परमे व्योमन् जानीत स्म) = परम आकाश में सर्वत्र व्याप्त जानो, और (अत्र) = इस जीवन में भी (लोकं विद) = उत्तम प्रकाशमय जीवन को प्राप्त करो [जानो]। २. यह निश्चय से समझ लो कि (यजमानः स्वस्ति अनु आगन्ता) = यह यज्ञशील पुरुष अधिक-से-अधिक सुख को प्रास करेगा, अत: तुम (अस्मै) = इस कल्याण व प्रभु-प्राप्ति के लिए (इष्टापूर्तम्) = यज्ञों व कूप-निर्माण आदि लोकहित के कार्यों को (आविः कृणुत) = अपने जीवन में प्रादुर्भूत करो। ये पवित्र कर्म ही तुम्हारा कल्याण करेंगे-ये प्रभु-प्राप्ति का साधन बनेंगे।

     

    भावार्थ -

    यज्ञों व लोकहित के कार्यों के द्वारा हम स्वर्ग को प्राप्त करें और प्रभु को भी जानें।

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