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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 123

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 123/ मन्त्र 5
    सूक्त - भृगु देवता - विश्वे देवाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सौमनस्य सूक्त

    नाके॑ राज॒न्प्रति॑ तिष्ठ॒ तत्रै॒तत्प्रति॑ तिष्ठतु। वि॒द्धि पू॒र्तस्य॑ नो राज॒न्त्स दे॑व सु॒मना॑ भव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नाके॑ । रा॒ज॒न् । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । तत्र॑ । ए॒तत् । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒तु॒ । वि॒ध्दि । पू॒र्तस्य॑ । न॒: । रा॒ज॒न् । स: । दे॒व॒ । सु॒ऽमना॑: । भ॒व॒ ॥१२३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाके राजन्प्रति तिष्ठ तत्रैतत्प्रति तिष्ठतु। विद्धि पूर्तस्य नो राजन्त्स देव सुमना भव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नाके । राजन् । प्रति । तिष्ठ । तत्र । एतत् । प्रति । तिष्ठतु । विध्दि । पूर्तस्य । न: । राजन् । स: । देव । सुऽमना: । भव ॥१२३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 123; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १.हे (राजन) = यज्ञादि उत्तम कर्मों से दीस जीवनवाले साधक! (नाके प्रतितिष्ठ) = तू सुखमय लोक में प्रतिष्ठित हो। (तत्र) = वहाँ-सुखमय लोक में (एतत्) = तेरा यह यज्ञरूप श्रेष्ठ कर्म भी (प्रतितिष्ठतु)= प्रतिष्ठित हो। २. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (राजन्) = दीप्त जीवनवाले साधक! (नः पूर्तस्य विद्धि) = हमसे वेद द्वारा उपदिष्ट प्रजा के पालन व पूरणात्मक कर्मों को तू जान-तू पूर्तकर्मों को करनेवाला बन । हे (देव) = दिव्य गुणयुक्त प्रकाशमय जीवनवाले साधक! (सः) = वह तू (सुमना भव) = प्रशस्त मनवाला हो।

    भावार्थ -

    यज्ञादि उत्तम कर्मों से सुखमय जीवनवाले बनकर हम इन यज्ञादि कर्मों में और अधिक प्रवृत्त हों। प्रभु से उपदिष्ट इष्ट व पूर्त कर्मों को करनेवाले बनें। सदा प्रसन्न व प्रशस्त मनवाले बनें।

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