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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 127/ मन्त्र 1
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
वि॑द्र॒धस्य॑ ब॒लास॑स्य॒ लोहि॑तस्य वनस्पते। वि॒सल्प॑कस्योषधे॒ मोच्छि॑षः पिशि॒तं च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽद्र॒धस्य॑ । ब॒लास॑स्य । लोहि॑तस्य । व॒न॒स्प॒ते॒ । वि॒ऽसल्प॑कस्य । ओ॒ष॒धे॒ । मा । उत् । शि॒ष॒: । पि॒शि॒तम् । च॒न ॥१२७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्रधस्य बलासस्य लोहितस्य वनस्पते। विसल्पकस्योषधे मोच्छिषः पिशितं चन ॥
स्वर रहित पद पाठविऽद्रधस्य । बलासस्य । लोहितस्य । वनस्पते । विऽसल्पकस्य । ओषधे । मा । उत् । शिष: । पिशितम् । चन ॥१२७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 127; मन्त्र » 1
विषय - 'विद्रध, बलास, लोहित, विसल्पक' की चिकित्सा
पदार्थ -
१. हे (वनस्पते) = चतुरंगुलपलाशवृक्ष! (ओषधे) = विसपर्क आदि व्याधियों के औषधभूत वटादिवृक्ष ! (विद्रधस्य) = विदारणशील हृदयव्रण के-चेतना को नष्ट करनेवाले व्रणविशेष के (बलासस्य) = [बलम् अस्यति क्षिपति] कास-श्वास आदि के, (लोहितस्य) = रुधिरनावात्मक रोग के तथा (विसल्पकस्य) = [विविधं सर्पति नाडीमुखेन] शरीर में फैलनेवाले हड़फूटन के (पिशितं चन) = निदानभूत दुष्ट मांस को भी-दुष्ट त्वक् [चमड़ी] आदि को (मा उच्छिष) = शेष मत छोड़।
भावार्थ -
वात, पित्त, कफ के दोषों के तारतम्य से 'त्वचा, रुधिर, मांस' आदि धातुओं को दूषित करके विसर्पक आदि रोग उत्पन्न होते हैं। उन्हें निदानसहित पलाश-बट आदि वनस्पतियों के प्रयोग से दूर करो।
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