Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 127/ मन्त्र 2
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - त्र्यसाना षट्पदा जगती
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
यौ ते॑ बलास॒ तिष्ठ॑तः॒ कक्षे॑ मु॒ष्कावप॑श्रितौ। वेदा॒हं तस्य॑ भेष॒जं ची॒पुद्रु॑रभि॒चक्ष॑णम् ॥
स्वर सहित पद पाठयौ । ते॒ । ब॒ला॒स॒ । तिष्ठ॑त: । कक्षे॑ । मु॒ष्कौ । अप॑ऽश्रितौ । वेद॑ । अ॒हम् । तस्य॑ । भे॒ष॒जम् । ची॒पुद्रु॑: । अ॒भि॒ऽचक्ष॑णम् ॥१२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यौ ते बलास तिष्ठतः कक्षे मुष्कावपश्रितौ। वेदाहं तस्य भेषजं चीपुद्रुरभिचक्षणम् ॥
स्वर रहित पद पाठयौ । ते । बलास । तिष्ठत: । कक्षे । मुष्कौ । अपऽश्रितौ । वेद । अहम् । तस्य । भेषजम् । चीपुद्रु: । अभिऽचक्षणम् ॥१२७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 127; मन्त्र » 2
विषय - चीपुद्रु
पदार्थ -
१. हे (बलास) = कास-श्वासादि रोग! (ते) = तेरे (यौ) = जो विसपर्क आदि विकार (कक्षे तिष्ठत:) = बाहमुल में स्थिर होते हैं और (मुष्कौ अपश्रितौ) = जो अण्डाकृति गिल्टियों बुरी तरह से उत्पन्न हो गई हैं, मैं (तस्य) = उसके (भेषजं वेद) = औषध को जानता हूँ। (चीपुद्रु:) = 'चीपुटु' नामवाला द्रुमविशेष (अभिचक्षणम्) = [अभिचक्ष्य निवर्तकम्] व्याधिमूल का सम्यक निवर्तक औषध है।
भावार्थ -
बलास नामक रोग में विसपर्क आदि विकार बाहुमूल में उत्पन्न हो जाते हैं, गिल्टियाँ भी बुरी भाँति पीड़ित करने लगती हैं। 'चिपु?' उस रोग का औषध है। वह चीपुद्ध 'चीव आदानसंवरणयोः' रोग के मूलभूत दोष का आदान करके रोग के लिए द्वार बन्द कर देता है|
इस भाष्य को एडिट करें