Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 129/ मन्त्र 2
येन॑ वृ॒क्षाँ अ॒भ्यभ॑वो॒ भगे॑न॒ वर्च॑सा स॒ह। तेन॑ मा भ॒गिनं॑ कृ॒ण्वप॑ द्रा॒न्त्वरा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । वृ॒क्षान् । अ॒भि॒ऽअभ॑व: । भगे॑न । वर्च॑सा । स॒ह । तेन॑ । मा॒ । भ॒गिन॑म् । कृ॒णु॒ । अप॑ । द्रा॒न्तु॒ । अरा॑तय: ॥१२९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
येन वृक्षाँ अभ्यभवो भगेन वर्चसा सह। तेन मा भगिनं कृण्वप द्रान्त्वरातयः ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । वृक्षान् । अभिऽअभव: । भगेन । वर्चसा । सह । तेन । मा । भगिनम् । कृणु । अप । द्रान्तु । अरातय: ॥१२९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 129; मन्त्र » 2
विषय - वृक्ष का अभिभव
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (येन भगेन) = जिस ऐश्वर्य से (वर्चसा सह) = वर्चस् के साथ-रोगनिरोधक शक्ति के साथ (वृक्षान् अभि अभव:) = [वृक्षते to cover] बुद्धि को आच्छादित कर लेनेवाली लोभवृत्तियों को आप जीत लेते हो (तेन) = उस ऐश्वर्य से (मा भगिनं कृणु) = मुझे ऐश्वर्यशाली कीजिए। २. प्रभु हमें वह ऐश्वर्य प्राप्त कराएँ, जिसमें कि हम विलास के शिकार न बनकर वर्चस्वी बने रहें तथा जो ऐश्वर्य हमें लोभाभिभूत करके बुद्धिशून्य न कर दे। हे प्रभो! आपके अनुग्रह से (अरातयः अपद्रान्तु:) = अदानवृत्तियाँ हमसे दूर ही रहें। हम धनों का सदा लोकहित-यज्ञों में विनियोग करनेवाले बनें।
भावार्थ -
मुझे ऐश्वर्य प्राप्त हो। मैं वर्चस्वी बनूँ और लोभाभिभूत न होकर दानवृत्तिवाला बना रहूँ।
इस भाष्य को एडिट करें