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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 129

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 129/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - भगः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भगप्राप्ति सूक्त

    यो अ॒न्धो यः पु॑नःस॒रो भगो॑ वृ॒क्षेष्वाहि॑तः। तेन॑ मा भ॒गिनं॑ कृ॒ण्वप॑ द्रा॒न्त्वरा॑तयः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒न्ध: । य: । पु॒न॒:ऽस॒र: । भग॑: । वृ॒क्षेषु॑ । आऽहि॑त: । तेन॑ । मा॒ । भ॒गिन॑म् । कृ॒णु॒ । अप॑ । द्रा॒न्तु॒ । अरा॑तय: ॥१२९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अन्धो यः पुनःसरो भगो वृक्षेष्वाहितः। तेन मा भगिनं कृण्वप द्रान्त्वरातयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अन्ध: । य: । पुन:ऽसर: । भग: । वृक्षेषु । आऽहित: । तेन । मा । भगिनम् । कृणु । अप । द्रान्तु । अरातय: ॥१२९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 129; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. हे प्रभो! आप (मा) = मुझे (तेन) = उस ऐश्वर्य से (भगिनं कृण) = ऐश्वर्यवाला कीजिए (यः) = जोकि (अन्धः) = मेरा भोजन बनता है [अन्धः-अन्नम्], अर्थात् वह धन दीजिए जिससे मैं भोजन जुटा सकू। (यः) = जो (पुन:सरः) = फिर गतिवाला होता है, अर्थात् मेरी पेटी में बन्द न रहकर लोकहित के कार्यों में विनियुक्त होता है [स गतौ]। (यः भगः) = जो ऐश्वर्य (वृक्षेषु) = [वश्चू छेदने] वासनाओं का दहन करनेवाले व्यक्तियों में स्थापित होता है। २. हे प्रभो! आपके अनुग्रह से (अरातयः अपदान्तु) = अदानवृत्तियाँ हमसे दूर रहें। हम इन धनों को सदा देनेवाले बनें और इसप्रकार 'वृक्ष' वासनाओं का छेदन करनेवाले बनें [वश्च छेदने, वृश्चति]। ये धन हमारे लिए वृक्ष [वृक्षते to cover] न बन जाएँ, ये हमारी बुद्धि पर पर्दा न डाल दें।

    भावार्थ -

    प्रभु मुझे वह धन दें जिससे मैं परिवार के लिए अन्न जुटा सकूँ, लोकहित के कार्य कर सकूँ तथा वासनाओं का विच्छेद करनेवाला ही बना रहूँ।

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