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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 130/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - स्मरः
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - स्मर सूक्त
र॑थ॒जितां॑ राथजिते॒यीना॑मप्स॒रसा॑म॒यं स्म॒रः। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
स्वर सहित पद पाठर॒थ॒ऽजिता॑म् । रा॒थ॒ऽजि॒ते॒यीना॑म् । अ॒प्स॒रसा॑म् । अ॒यम् । स्म॒र: । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रथजितां राथजितेयीनामप्सरसामयं स्मरः। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥
स्वर रहित पद पाठरथऽजिताम् । राथऽजितेयीनाम् । अप्सरसाम् । अयम् । स्मर: । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 130; मन्त्र » 1
विषय - कामवासना की उत्पत्ति कहाँ
पदार्थ -
१. (रथजिताम्) = रमण के साधनभूत पदार्थों का विजय [संग्रह] करनेवाले पुरुषों का तथा (राथजितेयीनाम्) = रमण-साधन पदार्थों को जीतनेवाले पुरुषों की (अप्सरसाम्) = इन सुन्दर स्त्रियों का अर्थ (अयं स्मर:) = यह 'काम' है। काम-वासना का सम्बन्ध इन रथजितों व राथजितेयी अप्सराओं से ही है। 'रमणसाधन पदार्थों का संग्रह व शारीरिक सौन्दर्य'काम-वासना की उत्पत्ति के साधन बनते हैं। २. हे (देवा:) = देवो! (स्मरम्) = इस 'काम' को (प्रहिणुत) = मुझसे दूर ही भेजो, (असौ माम् अनुशोचतु) = यह काम मेरा शोक करता रहे कि 'किस प्रकार उस पुरुष के हृदय में मेरा निवास था और किस प्रकार मुझे वहाँ से निकलना पड़ गया। २. (असौ) = वह काम में (स्मरतात्) = मुझे स्मरण करता रहे (इति) = बस । मे (प्रियः) = मेरा बड़ा प्रिय था, इति (स्मरतात्) = इसप्रकार मेरा स्मरण करके दुखी होता रहे। २. हे देवो! आप ऐसी कृपा करो कि (यथा) = जिससे (असौ मम स्मरतात्) = वह काम मेरा स्मरण करे, (अहं कदाचन अमुष्य न) = मैं कभी उसका स्मरण न करूँ। मुझसे वियोग के कारण 'काम' दुःखी हो। 'काम' से पृथक् होकर मैं दुःखी न हो।
भावार्थ -
कामवासना की उत्पत्ति वहीं होती है, जहाँ रमणसाधन पदार्थों के संग्रह व सौन्दर्य की ओर झुकाव हो। देवों की कृपा से काम मुझसे दूर हो जाए। स्थान-भ्रंश के कारण 'काम' दुःखी हो। मैं कभी इस काम का स्मरण न करूँ।
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