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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 130

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 130/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्मर सूक्त

    उन्मा॑दयत मरुत॒ उद॑न्तरिक्ष मादय। अग्न॒ उन्मा॑दया॒ त्वम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । मा॒द॒य॒त॒ । म॒रु॒त॒: । उत् । अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ । मा॒द॒य॒ । अग्ने॑ । उत् । मा॒द॒य॒ । त्वम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उन्मादयत मरुत उदन्तरिक्ष मादय। अग्न उन्मादया त्वमसौ मामनु शोचतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । मादयत । मरुत: । उत् । अन्तरिक्ष । मादय । अग्ने । उत् । मादय । त्वम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 130; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. हे (मरुत:) = वसन्तऋतु की सुन्दर वायुओ! आप इस 'काम' को (उन्मादयत) = उन्मत्त कर दो। हे (अन्तरिक्ष) = सम्पूर्ण वातावरण! (उत् मादय) = तू भी इस काम को उन्मत्त कर दे। हे (अग्ने) = शरीरस्थ अग्नितत्व [Excitement] (त्वम् उन्मादय) = तू भी इस काम को उन्मत्त कर, (असौ माम् अनुशोचतु) = वह मेरा शोक करे। २. वसन्त की वायुएँ, अन्तरिक्ष का सौन्दर्य व उत्तेजना उत्पन्न करनेवाला अग्नितत्व मुझे कामातुर न बनाकर 'काम' को ही उन्मत्त बनानेवाले हों और इसप्रकार यह काम मेरे हदय में स्थान न पाकर, वह मेरा शोक करता रहे।

    भावार्थ -

    कामवासना की उत्पत्ति के लिए कारणभूत वस्तुएँ काम को ही उन्मत्त करें, न कि मुझे। मेरे लिए तो यह काम विलाप ही करता रहे 'कि मेरा निवास-स्थान छिन गया।

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