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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 131/ मन्त्र 1
नि शी॑र्ष॒तो नि प॑त्त॒त आ॒ध्यो॒ नि ति॑रामि ते। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥
स्वर सहित पद पाठनि । शी॒र्ष॒त: । नि ।प॒त्त॒त: । आ॒ऽध्य᳡: । नि । ति॒रा॒मि॒। ते॒ । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
नि शीर्षतो नि पत्तत आध्यो नि तिरामि ते। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥
स्वर रहित पद पाठनि । शीर्षत: । नि ।पत्तत: । आऽध्य: । नि । तिरामि। ते । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 131; मन्त्र » 1
विषय - सिर से पैर तक कामजनित पीड़ा
पदार्थ -
१. काम से पीड़ित मनुष्य सिर से पैर तक एक विचित्र-सी व्यथा को अनुभव करता है। वह व्यथा ही यहाँ 'आधि' शब्द से कही गई है। 'काम' के विनाश के लिए कटिबद्ध व्यक्ति 'काम' को ही सम्बोधित करके कहता है कि हे काम!( नि शीर्षतः नि पत्तत:) = सिर से लेकर पाँव तक (ते आध्यः) = तेरे कारण उत्पन्न इन मानस पीड़ाओं को (नितिरामि) = विनष्ट [destroy] व पराभूत करता हूँ। २. हे (देवा:) = देवो! (स्मरं प्रहिणुत) = इस काम को मुझसे दूर भेजो, (असौ माम् अनुशोचतु) = यह काम मेरा शोक करे। मैं 'काम' के कारण शोकातुर न होऊँ। काम ही निर्वासित होकर, स्थान छिन जाने से मेरा शोक करे कि 'किस प्रकार उसके हृदय में रहता था और अब निकाल दिया गया हूँ। ३. हे (अनुमते) = शास्त्रानुकूल कार्यों को करने की बुद्ध! तू (इदम् अनुमन्यस्व) = इस 'काम-निर्वासन'- रूप मेरी अभिलाषा को अनुज्ञात कर। हे (आकूते) = दृढ़ संकल्प! तेरे लिए (इदं नमः सम्) [प्रापयामि] = इस नमस्कार व आदरभाव को प्राप्त कराता हैं। तू भी इस कामनिर्वासन का अनुज्ञान कर-मुझे कामनिर्वासन के योग्य बना।
भावार्थ -
हम कामवासना को दूर करके कामजनित पीड़ाओं को विनष्ट करें। इस कार्य में शास्त्रानुकूल कार्य करने की बुद्धि तथा दृढ़ संकल्प हमारे सहायक हों। 'देव भी इस 'काम' को हमसे दूर भेजें'-इसका भाव यह है कि हम सूर्य-चन्द्र, वायु आदि देवों के सम्पर्क में जितना अधिक अपने जीवन को बिताएँगे, अर्थात् जीवन जितना स्वाभाविक होगा, उतना ही हम वासना को जीत पाएँगे। कृत्रिम, विलासमय जीवन वासना को जाग्रत् करने में सहायक होता है।
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