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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 131

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 131/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्मर सूक्त

    यद्धाव॑सि त्रियोज॒नं प॑ञ्चयोज॒नमाश्वि॑नम्। तत॒स्त्वं पुन॒राय॑सि पु॒त्राणां॑ नो असः पि॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । धाव॑सि । त्रि॒ऽयो॒ज॒नम् । प॒ञ्च॒ऽयो॒ज॒नम् । आश्वि॑नम् । तत॑: । त्वम् । पुन॑: । आऽअ॑यसि । पु॒त्राणा॑म् । न॒: । अ॒स॒: । पि॒ता ॥१३१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्धावसि त्रियोजनं पञ्चयोजनमाश्विनम्। ततस्त्वं पुनरायसि पुत्राणां नो असः पिता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । धावसि । त्रिऽयोजनम् । पञ्चऽयोजनम् । आश्विनम् । तत: । त्वम् । पुन: । आऽअयसि । पुत्राणाम् । न: । अस: । पिता ॥१३१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 131; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (यत्) = यदि (त्रियोजनं धावसि) = तू तीन योजनपर्यन्त गतिवाला होता है, अथवा (आश्विनम्) = [अश्वेन प्रापणीयम्] घोड़े द्वारा प्राप्त करने योग्य (पञ्चयोजनम्) = पाँच योजन तक [धावसि] गतिवाला होता है, अर्थात् अश्वारूढ़ होकर पाँच योजन जाता है और (ततः) = उस त्रियोजन व पञ्चयोजन दूर स्थित देश से (त्वम्) = तु (पुनः आयसि) = फिर लौट भी आता है, तो (नः पुत्राणां पिता अस:) = हम पुत्रों का पिता बन।

    भावार्थ -

    यहाँ स्पष्ट संकेत है कि वासना को जीतकर हम इतने शक्तिशाली हों कि तीन योजन व घोड़े द्वारा पाँच योजन तक आ-जा सकें, तभी हमें गृहस्थ बनकर पिता बनने का अधिकार है।

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