अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 132/ मन्त्र 1
यं दे॒वाः स्म॒रमसि॑ञ्चन्न॒प्स्वन्तः शोशु॑चानं स॒हाध्या। तं ते॑ तपामि॒ वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । दे॒वा: । स्म॒रम् । असि॑ञ्चन् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । शोशु॑चानम् । स॒ह । आ॒ध्या । तम् । ते॒ । त॒पा॒मि॒ । वरु॑णस्य । धर्म॑णा ॥१३२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यं देवाः स्मरमसिञ्चन्नप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या। तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । देवा: । स्मरम् । असिञ्चन् । अप्ऽसु । अन्त: । शोशुचानम् । सह । आध्या । तम् । ते । तपामि । वरुणस्य । धर्मणा ॥१३२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 132; मन्त्र » 1
विषय - देवा, विश्वेदेवाः, इन्द्राणी, इन्द्राग्नी, मित्रावरुणौ
पदार्थ -
१. (यं स्मरम) = जिस काम को (देवा:) = वासनाओं को जीतने की कामनावाले ज्ञानी लोग (असिञ्चन्) = अपने हृदय में सिक्त करते हैं, (ते) = तेरे लिए भी (तम्) = उस काम को वरुणस्य (धर्मणा) = पापों से निवृत्त करनेवाले प्रभु के धारण के द्वारा (तपामि) = उज्ज्वल बनाता हूँ। सामान्यत: 'काम' वासना का रूप ले-लेता है और यह वासनात्मक काम (आध्या सह) = [कामो गन्धर्वः, तस्याधयोऽप्सरस:-तै० ३.४.७.३] मानस पीड़ारूप अपनी पत्नी के साथ (अप्सु अन्त:) = प्रजाओं में (शोशचानम्) = अतिशयेन विरहाग्नि से गात्रों को सन्तप्त करनेवाला होता है। यही काम वरुण के धारण से-प्रभु-स्मरण से पवित्र व उज्ज्वल होकर सन्तान को जन्म देनेवाला होता है। [धर्माविरुद्धा कामोऽस्मि भूतेषु भरतर्षभ, प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः]। देवलोग इसी काम को अपने हृदय में सिक्त करते हैं। २. इसीप्रकार (यं स्मरम्) = जिस काम को (विश्वेदेवाः) = देववृत्ति के सब पुरुष अपने में (असिञ्चत्) = सिक्त करते हैं, (यं स्मरम्) = जिस काम को (इन्द्राणी) = इन्द्रपत्नी जितेन्द्रिय पुरुष की आत्मशक्ति (असञ्चत्) = अपने में सिक्त करती हैं और (यं स्मरम्) = जिस काम को (इन्द्राग्नी) = शत्रुविद्रावक व आगे बढ़ने की वृत्तिवाले पुरुष (असिञ्चताम्) = अपने में सिक्त करते हैं और (यं स्मरम्) = जिस काम को (मित्रावरुणौ) = प्राण-अपान की साधना करनेवाले पुरुष (असिञ्चताम्) = अपने में सिक्त करते हैं, तेरे लिए भी उस काम को प्रभु-स्मरण द्वारा उज्ज्वल बनाता है।
भावार्थ -
सामान्य: 'काम' वासना का रूप धारण करके मानस पीड़ा से मनुष्य को विरहाग्नि में सन्तप्त करनेवाला बनता है, परन्तु यदि हम 'देव, विश्वेदेवा, इन्द्राणी, इन्द्राग्नी व मित्रावरुणौ' के समान काम को अपने हृदयों में सिक्त करेंगे तो यह काम प्रभु-स्मरण के द्वारा पवित्र बना रहेगा और सन्तति को जन्म देनेवाला होगा। कामवासना को जीतने का उपाय यही है कि हम ज्ञानी बनें [देवाः], देववृत्ति के बनने का यत्न करें [विश्वेदेवाः], आत्मिक शक्ति का वर्धन करें [इन्द्राणी], जितेन्द्रिय व आगे बढ़ने की वृत्तिवाले हों [इन्द्राग्नी] और प्राणायाम द्वारा प्राणापान की साधना करें [मित्रावरुणी]।
विशेष -
'काम'-बासना को जीतनेवाला यह व्यक्ति सब अविद्याओं व पापों का विध्वंस करनेवाला 'अग-स्त्य' बनता है। यह पाप को पराजित करने के लिए ही मेखला धारण करता है-कटिबद्ध होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।