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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - मृत्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मृत्युञ्जय सूक्त
नम॑स्ते अधिवा॒काय॑ परावा॒काय॑ ते॒ नमः॑। सु॑म॒त्यै मृ॑त्यो ते॒ नमो॑ दुर्म॒त्यै त॑ इ॒दं नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । अ॒धि॒ऽवा॒काय॑ । प॒रा॒ऽवा॒काय॑ । ते॒ । नम॑: । सु॒ऽम॒त्यै । मृ॒त्यो॒ इति॑ । ते॒ । नम॑: । दु॒:ऽम॒त्यै । ते॒ । इ॒दम्। नम॑: ॥१३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते अधिवाकाय परावाकाय ते नमः। सुमत्यै मृत्यो ते नमो दुर्मत्यै त इदं नमः ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । अधिऽवाकाय । पराऽवाकाय । ते । नम: । सुऽमत्यै । मृत्यो इति । ते । नम: । दु:ऽमत्यै । ते । इदम्। नम: ॥१३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
विषय - अधिवाक, परावाक, सुमति, दुर्मति
पदार्थ -
१. हे (मृत्यो) = मृत्यो! (ते) = तेरे कारणभूत (अधिवाकाय) = अनुकूल वचन के लिए हम (नमः) = नमन करते हैं। अनुकूल वचनों का अतिरेक होने से अविवेक उत्पन्न होकर मृत्यु होती है, अत: इनसे बचना ही ठीक है, (ते) = तेरे कारणभूत (परावाकाय) = प्रतिकूल वचनों के लिए (नमः) = नमस्कार हो। प्रतिकूल वचनों से निराशा होकर मृत्यु होती है। २. हे मृत्यो। (ते) = तेरी कारणभूत (सुमत्यै) = सुमति के लिए भी नमः नमस्कार हो। केवल सुमति हमें शरीर के प्रति उदासीन करके मृत्यु की ओर ले-जाती है और (ते) = तेरी कारणभूत (दुर्मत्यै) = दुर्मति के लिए (इदं नम:) = यह नमस्कार हो। दुर्मति तो सदा मृत्यु का कारण बनती ही है।
भावार्थ -
हर समय अनुकूल वचनों को ही सुननेवाला अविवेकवश मृत्यु का शिकार हो जाता है। प्रतिक्षण प्रतिकूल वचनों का श्रवण हमें निराश करके मार डालता है। सुमति में हम बौद्धिक कार्यों की ओर ही झुककर शरीर का ध्यान नहीं करते और दुर्मति तो सतत विनाश का कारण है ही।
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