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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 133

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 133/ मन्त्र 1
    सूक्त - अगस्त्य देवता - मेखला छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - मेखलाबन्धन सूक्त

    य इ॒मां दे॒वो मेख॑लामाब॒बन्ध॒ यः सं॑न॒नाह॒ य उ॑ नो यु॒योज॑। यस्य॑ दे॒वस्य॑ प्र॒शिषा॒ चरा॑मः॒ स पा॒रमि॑च्छा॒त्स उ॑ नो॒ वि मु॑ञ्चात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । इ॒माम् । दे॒व: । मेख॑लाम् । आ॒ऽब॒बन्ध॑ । य: । स॒म्ऽन॒नाह॑ । य: । ऊं॒ इति॑ । न॒: । यु॒योज॑ । यस्य॑ । दे॒वस्य॑ । प्र॒ऽशिषा॑ । चरा॑म: । स: । पा॒रम् । इ॒च्छा॒त् । स: । ऊं॒ इति॑ । न॒: । वि । मु॒ञ्चा॒त् ॥१३३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य इमां देवो मेखलामाबबन्ध यः संननाह य उ नो युयोज। यस्य देवस्य प्रशिषा चरामः स पारमिच्छात्स उ नो वि मुञ्चात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । इमाम् । देव: । मेखलाम् । आऽबबन्ध । य: । सम्ऽननाह । य: । ऊं इति । न: । युयोज । यस्य । देवस्य । प्रऽशिषा । चराम: । स: । पारम् । इच्छात् । स: । ऊं इति । न: । वि । मुञ्चात् ॥१३३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 133; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (यः) = जो (देव:) = शत्रुहनन-कुशल प्रभु (इमां मेखलां आबबन्ध) = इस मेखला को हमारे कटि-प्रदेश में बाँधते हैं और इस मेखला-बन्धन द्वारा (यः संननाह) = जो हमें कर्तव्यकर्मों को करने में सन्नद्ध करते हैं, और (उ) = निश्चय से (न: युयोज) = हमें अपने साथ युक्त करते हैं। ऐसा होने पर (यस्य देवस्य) = जिस सर्वान्तर्यामी देव के (प्रशिषा) = प्रशासन से (चरामः) = हम (वर्तते) = हैं-कर्मों में प्रवृत्त होते हैं, (स:) = वे प्रभु (पारम् इच्छात्) = हमारे प्रारिप्सित कर्म के पार तक हमें ले-चलना चाहें, (उ) = और (सः) = वे ही (न:) = हमें (विमुञ्चात्) = शत्रुओं से मुक्त करें।

     

    भावार्थ -

    प्रभु ने वेद के द्वारा मेखला-बन्धन का निर्देश किया है। इसके द्वारा प्रभु हमें कर्त्तव्यकों को करने में सन्नद्ध करते हैं और हमें उन कर्मों में सफलता प्राप्त कराते हैं। प्रभु के शासन में चलने पर हम काम-क्रोध आदि शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होते।

     

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