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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 133

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 133/ मन्त्र 4
    सूक्त - अगस्त्य देवता - मेखला छन्दः - जगती सूक्तम् - मेखलाबन्धन सूक्त

    श्र॒द्धाया॑ दुहि॒ता तप॒सोऽधि॑ जा॒ता स्वसा॒ ऋषी॑णां भूत॒कृतां॑ ब॒भूव॑। सा नो॑ मेखले म॒तिमा धे॑हि मे॒धामथो॑ नो धेहि॒ तप॑ इन्द्रि॒यं च॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्र॒ध्दाया॑: । दु॒हि॒ता । तप॑स: । अधि॑ । जा॒ता । स्वसा॑ । ऋषी॑णाम् । भू॒त॒ऽकृता॑म् । ब॒भूव॑ । सा । न॒: । मे॒ख॒ले॒। म॒तिम् । आ । धे॒हि॒ । मे॒धाम् । अथो॒ इति॑ । न॒: । धे॒हि॒ । तप॑: । इ॒न्द्रि॒यम् । च॒ ॥१३३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रद्धाया दुहिता तपसोऽधि जाता स्वसा ऋषीणां भूतकृतां बभूव। सा नो मेखले मतिमा धेहि मेधामथो नो धेहि तप इन्द्रियं च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रध्दाया: । दुहिता । तपस: । अधि । जाता । स्वसा । ऋषीणाम् । भूतऽकृताम् । बभूव । सा । न: । मेखले। मतिम् । आ । धेहि । मेधाम् । अथो इति । न: । धेहि । तप: । इन्द्रियम् । च ॥१३३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 133; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. यह मेखला (श्रद्धायाः दुहिता) = श्रद्धा की दुहिता है, आस्तिक्य बुद्धि का प्रपूरण करनेवाली है, (तपसः अधिजाता) = तप से इसका प्रादुर्भाव हुआ है। (भूतकृतां ऋषीणां स्वसा बभूव) = यथार्थ कर्मों को करनेवाले ऋषियों की यह बहिन है। मेखला का धारण श्रद्धा से होता है, धारित हुई-हुई यह हमें तपस्वी बनाती है और उत्तम कर्मों को कराती हुई यह हमें उत्तम स्थिति में ले-जाती है। २. (मेखले) = मेखले! (सा) = वह तू (न:) = हमारे लिए (मतिम्) = मनन-शक्ति को (आधेहि) = धारण कर, (मेधाम) = मेधा बुद्धि को (अथो) = और (न:) = हमारे लिए (तपः) = तप को (च इन्द्रियम्) = और वीर्य को (धेहि) = धारण कर।

    भावार्थ -

    मेखला का धारण श्रद्धा से होता है। यह हमें तपस्वी बनाती है और उत्तम कर्मों को कराती हुई उत्तम स्थिति में लाती है। यह हममें 'मति, तप व वीर्य' का स्थापन करती है।

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