अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 133/ मन्त्र 5
यां त्वा॒ पूर्वे॑ भूत॒कृत॒ ऋष॑यः परिबेधि॒रे। सा त्वं परि॑ ष्वजस्व॒ मां दी॑र्घायु॒त्वाय॑ मेखले ॥
स्वर सहित पद पाठयाम् । त्वा॒ । पूर्वे॑ । भू॒त॒ऽकृत॑: । ऋष॑य: । प॒रि॒ऽबे॒धि॒रे । सा । त्वम् । परि॑ । स्व॒ज॒स्व॒ । माम् । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । मे॒ख॒ले॒ ॥१३३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यां त्वा पूर्वे भूतकृत ऋषयः परिबेधिरे। सा त्वं परि ष्वजस्व मां दीर्घायुत्वाय मेखले ॥
स्वर रहित पद पाठयाम् । त्वा । पूर्वे । भूतऽकृत: । ऋषय: । परिऽबेधिरे । सा । त्वम् । परि । स्वजस्व । माम् । दीर्घायुऽत्वाय । मेखले ॥१३३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 133; मन्त्र » 5
विषय - दीर्घायुत्वाय
पदार्थ -
१. हे (मेखले) = मेखले! (यां त्वा) = जिस तुझे (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (भूतकृता) = यथार्थ कर्मों को करनेवाले (ऋषयः) = वासना-बिनाशक [ऋषु to kill] तत्वद्रष्टा पुरुष (परिबेधिरे) = बाँधते हैं, (सा त्वम्) = वह तु (मां परिष्वजस्व) = मेरा आलिङ्गन कर, जिससे दीर्घायुत्वाय-मैं दीर्घजीवन को प्राप्त करनेवाला बनूं।
भावार्थ -
मेखला धारण करनेवाला 'अपना पालन व पूरण करता है, यथार्थ कर्मों को करता है, वासनाओं का विनाश करता है, तत्त्वद्ष्टा बनता है, और इसप्रकार दीर्घजीवनवाला होता है।
विशेष -
यह दृढ़निश्चयी पुरुष वासनाओं का विनाश करके शक्तिशाली बनता है, अत: "शुक्र: ' [शुक्रं वीर्यम् अस्य अस्ति इति शुक्रः] कहलाता है। यही अगले दो सूक्तों का ऋषि है।