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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 142

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 142/ मन्त्र 2
    सूक्त - विश्वामित्र देवता - वायुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अन्नसमृद्धि सूक्त

    आ॑शृ॒ण्वन्तं॒ यवं॑ दे॒वं यत्र॑ त्वाच्छा॒वदा॑मसि। तदुच्छ्र॑यस्व॒ द्यौरि॑व समु॒द्र इ॑वै॒ध्यक्षि॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽशृ॒ण्वन्त॑म् । यव॑म् । दे॒वम् । यत्र॑ । त्वा॒ । अ॒च्छ॒ऽआ॒वदा॑मसि । तत् । उत् । श्र॒य॒स्व॒ । द्यौ:ऽइ॑व । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । ए॒धि॒ । अक्षि॑त: ॥१४२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आशृण्वन्तं यवं देवं यत्र त्वाच्छावदामसि। तदुच्छ्रयस्व द्यौरिव समुद्र इवैध्यक्षितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽशृण्वन्तम् । यवम् । देवम् । यत्र । त्वा । अच्छऽआवदामसि । तत् । उत् । श्रयस्व । द्यौ:ऽइव । समुद्र:ऽइव । एधि । अक्षित: ॥१४२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 142; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. यह 'यव' देव हमारी प्रार्थना को सुनता है। (आशृण्वन्तम्) = हमारी प्रार्थना को सुनते हुए (यवं देवम्) = इस 'यव' देव को (यत्र त्वा अच्छ आवदामसि) = जिस भूमि पर तुझे लक्ष्य करके प्रार्थना करते हैं कि (तत्) = वह तू (द्यौ इव उच्छ्य स्व) = आकाश की भाँति उन्नत हो, समस्यावस्था में खूब फूल-फलवाला और फलावस्था में (समुद्रइव अक्षितः एधि) = समुद्र के समान क्षयरहित हो।

    भावार्थ -

    ये देवयव-दिव्य गुणयुक्त जी-रोगों को पराजित करनेवाले जौ-क्षेत्रों में खुब उन्नत हों-आकाश में खूब ऊपर उठे और इनका फल समुद्र के समान अक्षीण हो।

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