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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
सूक्त - शन्ताति
देवता - चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - केशवर्धनी ओषधि सूक्त
इ॒मा यास्ति॒स्रः पृ॑थि॒वीस्तासां॑ ह॒ भूमि॑रुत्त॒मा। तासा॒मधि॑ त्व॒चो अ॒हं भे॑ष॒जं समु॑ जग्रभम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मा: । या: । ति॒स्र: । पृ॒थि॒वी। तासा॑म् । ह॒ । भूमि॑: । उ॒त्ऽत॒मा । तासा॑म् । अधि॑ । त्व॒च: । अ॒हम्। भे॒ष॒जम् । सम्। ऊं॒ इति॑ । ज॒ग्र॒भ॒म् ॥२१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा यास्तिस्रः पृथिवीस्तासां ह भूमिरुत्तमा। तासामधि त्वचो अहं भेषजं समु जग्रभम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमा: । या: । तिस्र: । पृथिवी। तासाम् । ह । भूमि: । उत्ऽतमा । तासाम् । अधि । त्वच: । अहम्। भेषजम् । सम्। ऊं इति । जग्रभम् ॥२१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
विषय - भूमि उत्तमा
पदार्थ -
१. (इमा:) = ये (या:) = जो (तिस्त्र:) = तीन (पृथिवी:) = [पथ विस्तारे] विस्तृत लोक हैं, (तासाम्) = उनमें (ह) = निश्चय से (भूमिः उत्तमा) = [भवन्ति भूतानि यस्याम्] जिसपर प्राणियों का निवास है, ऐसी यह भूमि उत्तम है। धुलोकस्थ सूर्य अपनी किरणों के द्वारा जलों को वाष्पीभूत करके अन्तरिक्ष में मेघों का निर्माण करता है। इनसे वृष्टि होकर भूमि पर विविध ओषधियों की उत्पत्ति होती है। २. (तासाम्) = उन लोगों के (अधित्वच:) = आवरणभाग-उनकी पीठ पर उत्पन्न होनेवाले (भेषजम्) = औषध को (उ) = निश्चय से (अहम्) = मैं (सम् अजग्रनभम्) = ग्रहण करता हूँ।
भावार्थ -
इस पृथिवी की पीठ पर अन्तरिक्ष की दृष्टि व सूर्य-किरणों द्वारा उत्पन्न होनेवाली ओषधियों को मैं ग्रहण करता हैं। इनके द्वारा रोगों को दूर करके मैं शान्ति प्राप्त करता हूँ।
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