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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
सूक्त - शन्ताति
देवता - चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - केशवर्धनी ओषधि सूक्त
रेव॑ती॒रना॑धृषः सिषा॒सवः॑ सिषासथ। उ॒त स्थ के॑श॒दृंह॑णी॒रथो॑ ह केश॒वर्ध॑नीः ॥
स्वर सहित पद पाठरेव॑ती: । अना॑धृष: । सि॒सा॒सव॑: । सि॒सा॒स॒थ॒ । उ॒त । स्थ । के॒श॒ऽदृंह॑णी:। अथो॒ इति॑ । ह॒ । के॒श॒ऽवर्ध॑नी ॥२१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
रेवतीरनाधृषः सिषासवः सिषासथ। उत स्थ केशदृंहणीरथो ह केशवर्धनीः ॥
स्वर रहित पद पाठरेवती: । अनाधृष: । सिसासव: । सिसासथ । उत । स्थ । केशऽदृंहणी:। अथो इति । ह । केशऽवर्धनी ॥२१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
विषय - अनाधषः सिषासवः
पदार्थ -
१. हे ओषधियो! तुम (रेवती) = आरोग्यरूप ऐश्वर्यशाली हो, (अनाधृष:) = रोगरूप शत्रुओं से धर्षित न होनेवाली हो, (सिषासवः) = हमारे लिए आरोग्य का सम्भजन करने की कामनावाली हो, (सिषासथ) = अत: हमारे लिए आरोग्य देने की इच्छा करो। २. इसप्रकार हमें स्वस्थ करके (उत) = निश्चय से (केशदृहणी: स्थ) = केशों को दृढ़ करनेवाली हो (अथो) = और (ह) = निश्चय से (केशवर्धनी:) = केशों को बढ़ानेवाली हो। निर्बलता में केश झड़ने लगते हैं। ये औषध हमें नीरोग बनाकर दृढ़ केशोंवाला बनाते हैं।
भावार्थ -
औषधों में अरोग्यरूप ऐश्वर्य का निवास है। इन्हें रोग पराजित नहीं कर पाते। यह रोगों को जीतने की कामनावाली है। ये हमें नीरोग बनाकर दृढ़ केशोंवाला व बढ़े हुए केशोंवाला बनाती है [गुडाकेश]।
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