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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 22

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
    सूक्त - शन्ताति देवता - आदित्यरश्मिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त

    कृ॒ष्णं नि॒यानं॒ हर॑यः सुप॒र्णा अ॒पो वसा॑ना॒ दिव॒मुत्प॑तन्ति। त आव॑वृत्र॒न्त्सद॑नादृ॒तस्यादिद्घृ॒तेन॑ पृथि॒वीं व्यू॑दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒ष्णम् । नि॒ऽयान॑म् । हर॑य: । सु॒ऽप॒र्णा: । अ॒प: । वसा॑ना: । दिव॑म् । उत् । प॒त॒न्ति॒ । ते । आ । अ॒व॒वृ॒त्र॒न् । सद॑नात् । ऋ॒तस्य॑ । आत् । इत् । घृ॒तेन॑ । पृ॒थि॒वीम् । वि । ऊ॒दु॒: ॥२२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति। त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद्घृतेन पृथिवीं व्यूदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृष्णम् । निऽयानम् । हरय: । सुऽपर्णा: । अप: । वसाना: । दिवम् । उत् । पतन्ति । ते । आ । अववृत्रन् । सदनात् । ऋतस्य । आत् । इत् । घृतेन । पृथिवीम् । वि । ऊदु: ॥२२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 22; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (हरयः) = जल का हरण करनेवाली (सुपर्णाः) = उत्तमता से हमारा पालन व पूरण करनेवाली वायुएँ (अपः वसानः) = जल को धारण करती हुई (कृष्णम्) = सबका आकर्षण करनेवाले (नियानम्) = निश्चित गतिवाले (दिवम्) = सूर्य की ओर (उत्पतन्ति) = ऊपर उठती हैं। सूर्य-किरणों द्वारा वाष्पीभूत जल को लेकर वायुएँ ऊपर आकाश में उठती हैं। २. (ते) = वे वायुएँ (ऋतस्य) = जल के [rain water] (सदनात्) = सदन-अन्तरिक्ष से (आववृत्रन्) = पुनः वापस आती हैं, (आत् इत्) = और तब शीघ्र ही (घृतेन) = जल से (पृथिवीम् व्यूदुः) = पृथिवी को गीला कर देती हैं।

    भावार्थ -

    सूर्य-किरणों से वाष्पीभूत जल को लेकर वायुएँ सूर्य की ओर ऊपर उठती हैं। वे ही वायुएँ अन्तरिक्ष से लौटती हुई जल बरसाती हैं और सारी पृथिवी को गीला कर डालती हैं।

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