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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
स॒स्रुषी॒स्तद॒पसो॒ दिवा॒ नक्तं॑ च स॒स्रुषीः॑। वरे॑ण्यक्रतुर॒हम॒पो दे॒वीरुप॑ ह्वये ॥
स्वर सहित पद पाठस॒स्रुषी॑: । तत् । अ॒पस॑: । दिवा॑ । नक्त॑म्। च॒ । स॒स्रुषी॑: । वरे॑ण्यऽक्रतु । अ॒हम् । अ॒प: । दे॒वी: । उप॑ । ह्व॒ये॒ ॥२३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सस्रुषीस्तदपसो दिवा नक्तं च सस्रुषीः। वरेण्यक्रतुरहमपो देवीरुप ह्वये ॥
स्वर रहित पद पाठसस्रुषी: । तत् । अपस: । दिवा । नक्तम्। च । सस्रुषी: । वरेण्यऽक्रतु । अहम् । अप: । देवी: । उप । ह्वये ॥२३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
विषय - वरेण्य क्रतु द्वारा अपों का आह्वान
पदार्थ -
१. (वरेण्यक्रतुः अहम्) = प्रशंसित श्रेष्ठ कर्म व प्रज्ञानवाला मैं (तत् सस्नुषी:) = उन प्रवाहयुक्त जलधाराओं को (च) = और (दिवा नक्तम्) = दिन-रात (सस्नुषी: अपस:) = धाराओं में बहनेवाले जलों को (उपह्वये) = पुकारता हूँ। जल बह रहे हैं और बह ही रहे हैं। मैं भी निरन्तर कार्यक्रम में बहनेवाला-शान्तभाव से कर्त्तव्यकर्मों को करनेवाला बनूं। २. मैं (देवी: अप:) = इन दिव्य गुणयुक्त जलों को पुकारता हूँ। इनके प्रयोग से मैं रोगों को जीतनेवाला बनूं। नौरोग बनकर जलों की भाँति शान्तभाव से कर्तव्यधारा में बहनेवाला बनूं।
भावार्थ -
हम जलों का स्मरण करें। जलों की भाँति शान्तभाव से कर्तव्यधारा में बहें । यही 'वरेण्यक्रतु' बनने का मार्ग है।
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