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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
दे॒वस्य॑ सवि॒तुः स॒वे कर्म॑ कृण्वन्तु॒ मानु॑षाः। शं नो॑ भवन्त्व॒प ओष॑धीः शि॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑ । स॒वि॒तु: । स॒वे । कर्म॑ । कृ॒ण्व॒न्तु॒ । मानु॑षा: । शम् । न: । भ॒व॒न्तु॒ । अप: । ओष॑धी: । शिवा: ॥२३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य सवितुः सवे कर्म कृण्वन्तु मानुषाः। शं नो भवन्त्वप ओषधीः शिवाः ॥
स्वर रहित पद पाठदेवस्य । सवितु: । सवे । कर्म । कृण्वन्तु । मानुषा: । शम् । न: । भवन्तु । अप: । ओषधी: । शिवा: ॥२३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
विषय - प्रतिक्रियाशीलता व कल्याण
पदार्थ -
१. (सवितुः देवस्य) = उस प्रेरक प्रकाशमय प्रभु की (सवे) = प्रेरणा में (मानुषा:) = विचारशील पुरुष कर्म (कृण्वन्तु) = अपने कर्तव्यकर्मों को करनेवाले हों। २. इस क्रियाशीलता के होने पर (नः) = हमारे लिए (अपः) = जल व (ओषधी:) = ओषधियाँ (शम्) = शान्ति देनेवाली व (शिवा:) = कल्याण करनेवाली (भवन्तु) = हों।
भावार्थ -
प्रभु की अनुज्ञा में कर्म करने पर जल हमें शान्ति देनेवाले होते हैं और ओषधियाँ कल्याणकारिणी होती हैं।
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