Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
सूक्त - शुनः शेप
देवता - मन्याविनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मन्याविनाशन सूक्त
पञ्च॑ च॒ याः प॑ञ्चा॒शच्च॑ सं॒यन्ति॒ मन्या॑ अ॒भि। इ॒तस्ताः सर्वा॑ नश्यन्तु वा॒का अ॑प॒चिता॑मिव ॥
स्वर सहित पद पाठपञ्च॑ । च॒ ।या: । प॒ञ्चा॒शत् । च॒ । स॒म्ऽयन्ति॑ । मन्या॑: । अ॒भि । इ॒त: । ता: । सर्वा॑: । न॒श्य॒न्तु॒ । वा॒का: । अ॒प॒चिता॑म्ऽइव ॥२५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पञ्च च याः पञ्चाशच्च संयन्ति मन्या अभि। इतस्ताः सर्वा नश्यन्तु वाका अपचितामिव ॥
स्वर रहित पद पाठपञ्च । च ।या: । पञ्चाशत् । च । सम्ऽयन्ति । मन्या: । अभि । इत: । ता: । सर्वा: । नश्यन्तु । वाका: । अपचिताम्ऽइव ॥२५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
विषय - नाड़ियों के विकार का निराकरण
पदार्थ -
१. (या:) = जो (पञ्च च पञ्चाशत् च) = पाँच और पचास पीड़ाएँ (मन्याः अभि) = गले के पृष्ठ भाग की नाड़ियों में (संयन्ति) = व्याप्त होती हैं, (ताः सर्वाः) = वे सब (इत:) = यहाँ से इसप्रकार (नश्यन्त) = नष्ट हो जाएँ, (इव) = जैसे विद्वानों के सामने (अपचितां वाका:) = मूखों के वचन। २. (या:) = जो (सप्त च समतिः च) = सात और सत्तर पीड़ाएँ (ग्रैव्या: अभि) = गले की नाड़ियों में (संयन्ति) = व्याप्त हो जाती हैं, वे सब यहाँ से उसी प्रकार नष्ट हो जाएँ (इव) = जैसेकि ज्ञानियों के सामने (अपचिताम् वाका:) = मूखों के वचन नष्ट हो जाते हैं। (या:) = जो (नव च नवतिश्च) = नौ और नव्वे पीडाएँ (स्कन्ध्या: अभि) = कन्धों की नाडियों में (संयन्ति) = व्याप्त हो जाती हैं, वे सब यहाँ से इसप्रकार नष्ट हो जाएँ जैसेकि ज्ञानियों के सामने मूखों के वचन नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ -
'मन्या, ग्रैव्य व स्कन्ध्य' नाड़ियों में विकार के कारण गण्डमाला का रोग प्रकट होता है। नाना प्रकार की फुसियों या गिलटियों से बना यह रोग जल के ठीक प्रयोग से दूर किया जाए, तभी जीवन सुखी होगा।
विशेष -
शरीर के रोगों की भाँति मानस रोगों को दूर करनेवाला यह व्यक्ति 'ब्रह्मा' बनता है-बड़ा-एकदम निष्पाप । यही अगले सूक्त का ऋषि है।