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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
सि॑न्धुपत्नीः॒ सिन्धु॑राज्ञीः॒ सर्वा॒ या न॒द्य स्थन॑। द॒त्त न॒स्तस्य॑ भेष॒जं तेना॑ वो भुनजामहै ॥
स्वर सहित पद पाठसिन्धु॑ऽपत्नी: । सिन्धु॑ऽराज्ञी: । सर्वा॑: । या: । न॒द्य᳡: । स्थन॑ । द॒त्त । न॒: । तस्य॑ । भे॒ष॒जम् । तेन॑ । व॒: । भु॒न॒जा॒म॒है॒ ॥२४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सिन्धुपत्नीः सिन्धुराज्ञीः सर्वा या नद्य स्थन। दत्त नस्तस्य भेषजं तेना वो भुनजामहै ॥
स्वर रहित पद पाठसिन्धुऽपत्नी: । सिन्धुऽराज्ञी: । सर्वा: । या: । नद्य: । स्थन । दत्त । न: । तस्य । भेषजम् । तेन । व: । भुनजामहै ॥२४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 24; मन्त्र » 3
विषय - सिन्धुपत्नीः, सिन्धुराज्ञी:
पदार्थ -
१. (सिन्धपत्नी:) = समुद्र की पत्नीरूप (सिन्धराज्ञी:) = विशाल जल प्रवाहों से दीस (या:) = जो (सर्वा: नद्यः) = सब नदियाँ स्थन हैं, वे (न:) = हमारे लिए (तस्य) = उस रोग के-जलन उत्पन्न करनेवाले रोग के (भेषजं दत्त) = औषध को प्राप्त कराएँ। २. (तेन) = उस औषध के हेतु से ही हम (व: भुनजामहै) = आपका सेवन [उपयोग] करते हैं। नदी-जल में स्नान कितने ही रोगों का निवारण करनेवाला होता है। बड़ी-बड़ी नदियों में कितने ही जल-प्रवाहों का सङ्गम होता है। पर्वतों से बहते हुए ये प्रवाह अपने जलों में विविध औषधों के गुणों से युक्त होते हैं। बड़ी नदियों में जलों में सब गुण उपलब्ध हैं। ये नदियाँ समुद्र की मानो पत्नियाँ हैं, अपने प्रवाह से शोभायमान हैं।
भावार्थ -
बड़ी-बड़ी नदियों का जल विविध औषध-गुणों को लिये हुए होता है। उसका सेवन हमें नीरोग बनाता है।
विशेष -
नदी-जलों के प्रयोग से अपने शरीर को नौरोग बनाकर जीवन को सुखी बनानेवाला 'शुन:शेप' [शुनं सुखम्] अगले सूक्त का ऋषि है।