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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शन्ताति देवता - आपः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपांभैषज्य सूक्त
    64

    सि॑न्धुपत्नीः॒ सिन्धु॑राज्ञीः॒ सर्वा॒ या न॒द्य स्थन॑। द॒त्त न॒स्तस्य॑ भेष॒जं तेना॑ वो भुनजामहै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सिन्धु॑ऽपत्नी: । सिन्धु॑ऽराज्ञी: । सर्वा॑: । या: । न॒द्य᳡: । स्थन॑ । द॒त्त । न॒: । तस्य॑ । भे॒ष॒जम् । तेन॑ । व॒: । भु॒न॒जा॒म॒है॒ ॥२४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सिन्धुपत्नीः सिन्धुराज्ञीः सर्वा या नद्य स्थन। दत्त नस्तस्य भेषजं तेना वो भुनजामहै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सिन्धुऽपत्नी: । सिन्धुऽराज्ञी: । सर्वा: । या: । नद्य: । स्थन । दत्त । न: । तस्य । भेषजम् । तेन । व: । भुनजामहै ॥२४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सिन्धुपत्नीः) बहनेवाले संसार [वा समुद्र] की पालनेवाली, (सिन्धुराज्ञीः) बहनेवाले जगत् की शासन करनेवाली, [वा समुद्र की शोभा बढ़ानेवाली] (याः) जो तुम (सर्वाः) सब शक्तियाँ (नद्यः) [परमेश्वर की] स्तुति करनेवाली [वा नदियाँ] (स्थन) हो। वे तुम (नः) हमें (तस्य) हिंसक रोग की (भेषजम्) ओषधि (दत्त) दो, (तेन) उससे (वः) तुम्हारे [गुणों को] (भुनजामहै) हम भोगें ॥३॥

    भावार्थ

    जिस परमेश्वर ने मनुष्य के सुख के लिये अनन्त रचनायें की हैं, उसकी उपासना करके मनुष्य सदा शान्ति पावें और जल द्वारा रोगनिवृत्ति करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(सिन्धुपत्नीः) विभाषा सपूर्वस्य। पा० ४।१।३४। इति ङीप् नकारौ। सिन्धौः स्यन्दनशीलस्य संसारस्य समुद्रस्य वा पत्न्यः पालयित्र्यः (सिन्धुराज्ञीः) सिन्धोः स्यन्दशीलस्य जगतो राज्ञः शासिकाः, यद्वा समुद्रस्य राजयित्र्यः शोभयित्र्यः (सर्वाः) (याः) (नद्यः) णद भाषायां चुरा०−अच्, नदतेः स्तुतिकर्मणः−निरु० ५।२। स्त्रोत्र्यः परमेश्वरस्य जलप्रवाहाः (स्थन) तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१। भवथ (दत्त) प्रयच्छत (नः) अस्मभ्यम् (तस्य) तर्द हिंसायाम्। रोगस्य (भेषजम्) औषधम् (तेन) (वः) युष्माकं गुणान् (भुनजामहै) भुज पालनाभ्यवहारयोः। भुजोऽनवने। पा० १।३।६६। इत्यात्मनेपदम्। उपजीवाम ॥

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    विषय

    सिन्धुपत्नीः, सिन्धुराज्ञी:

    पदार्थ

    १. (सिन्धपत्नी:) = समुद्र की पत्नीरूप (सिन्धराज्ञी:) = विशाल जल प्रवाहों से दीस (या:) = जो (सर्वा: नद्यः) = सब नदियाँ स्थन हैं, वे (न:) = हमारे लिए (तस्य) = उस रोग के-जलन उत्पन्न करनेवाले रोग के (भेषजं दत्त) = औषध को प्राप्त कराएँ। २. (तेन) = उस औषध के हेतु से ही हम (व: भुनजामहै) = आपका सेवन [उपयोग] करते हैं। नदी-जल में स्नान कितने ही रोगों का निवारण करनेवाला होता है। बड़ी-बड़ी नदियों में कितने ही जल-प्रवाहों का सङ्गम होता है। पर्वतों से बहते हुए ये प्रवाह अपने जलों में विविध औषधों के गुणों से युक्त होते हैं। बड़ी नदियों में जलों में सब गुण उपलब्ध हैं। ये नदियाँ समुद्र की मानो पत्नियाँ हैं, अपने प्रवाह से शोभायमान हैं।

    भावार्थ

    बड़ी-बड़ी नदियों का जल विविध औषध-गुणों को लिये हुए होता है। उसका सेवन हमें नीरोग बनाता है।

    विशेष

    नदी-जलों के प्रयोग से अपने शरीर को नौरोग बनाकर जीवन को सुखी बनानेवाला 'शुन:शेप' [शुनं सुखम्] अगले सूक्त का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (सिन्धुपत्नीः) सिन्धु जिन का पति है, (सिन्धुराज्ञी:) सिन्धु जिन का राजा है ऐसी (याः सर्वाः) जो सब (नद्यः) नदियां (स्थन) तुम हो, वे तुम (नः) हमें (तस्य) उस रोग सम्बन्धी ( भेषजम् ) औषध (दत्त) प्रदान करो, (व:) तुम्हारी (तेन) उस औषध द्वारा (भुनजामहै) हम निज पालन करें।

    टिप्पणी

    [सिन्धु का अभिप्राय है समुद्र, न कि सिन्ध नदी। कविता में जलचिकित्सा द्वारा रोगनिवर्तक "आपः औषध" का कथन है। भूनजामहे= भुज पालनाभ्यवहारयोः (रुधादिः)]।

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    विषय

    हृदय रोग पर जल चिकित्सा।

    भावार्थ

    (सिन्धु-पत्नीः) अपने निरन्तर प्रवाह को पालने वाली, सदाबहार और (सिन्धु-राज्ञीः) नित्य बहते प्रवाह से शोभा देनेवाली (याः) जितनी विशाल (नद्यः) बड़ी नदियां (स्थन) हैं। हे नदियो ! तुम सब (नः) हम मनुष्यों को (तस्य) उस पीड़ाकर रोग के (भेषजम्) निवारक ओषधि का (दत्त) प्रदान करो। (तेन) उसके बल पर ही हम (वः) तुम सब नदियों का (भुनजामहै) उपभोग करें। नदियों के कारण ही हम स्वस्थ रहकर नदियों का आनन्द लाभ उठाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिर्ऋषिः। आपो देवताः। १-३ अनुष्टुभ्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apah, the Flow

    Meaning

    O streams of Apah, water and karma, that flow in the flux of existence, that sustain us by the glory of the cosmic ocean and shine and rule by the splendour of the infinite sea, pray give us that sanative peace of good health against that pain of agitation by which we may enjoy the beauty and pleasure of the flow without pain and suffering.

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    Translation

    O rivers, all of you are wives and queens of ocean. May you give us a remedy for this disease, so that we may enjoy you.

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    Translation

    Let all the rivers which maintain the continuity of their flow always, which are in spate with mighty flow provide us with the balm that heals the ill and may we enjoy this boon from them.

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    Translation

    All the big streams feed the ocean and add to its glory. May they give us the balm that heals this ill. May we enjoy this boon from you.

    Footnote

    They and you refer to streams, whose water possesses medicinal properties.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सिन्धुपत्नीः) विभाषा सपूर्वस्य। पा० ४।१।३४। इति ङीप् नकारौ। सिन्धौः स्यन्दनशीलस्य संसारस्य समुद्रस्य वा पत्न्यः पालयित्र्यः (सिन्धुराज्ञीः) सिन्धोः स्यन्दशीलस्य जगतो राज्ञः शासिकाः, यद्वा समुद्रस्य राजयित्र्यः शोभयित्र्यः (सर्वाः) (याः) (नद्यः) णद भाषायां चुरा०−अच्, नदतेः स्तुतिकर्मणः−निरु० ५।२। स्त्रोत्र्यः परमेश्वरस्य जलप्रवाहाः (स्थन) तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१। भवथ (दत्त) प्रयच्छत (नः) अस्मभ्यम् (तस्य) तर्द हिंसायाम्। रोगस्य (भेषजम्) औषधम् (तेन) (वः) युष्माकं गुणान् (भुनजामहै) भुज पालनाभ्यवहारयोः। भुजोऽनवने। पा० १।३।६६। इत्यात्मनेपदम्। उपजीवाम ॥

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