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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
सूक्त - जाटिकायन
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - इन्द्रस्तव सूक्त
नाधृ॑ष॒ आ द॑धृषते धृषा॒णो धृ॑षि॒तः शवः॑। पु॒रा यथा॑ व्य॒थिः श्रव॒ इन्द्र॑स्य॒ नाधृ॑षे॒ शवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । आ॒ऽधृ॒षे॒ । आ । द॒धृ॒ष॒ते॒ । धृ॒षा॒ण: । धृ॒षि॒त: । शव॑: । पु॒रा ।यथा॑ । व्य॒थि:। श्रव॑: । इन्द्र॑स्य । न । आ॒ऽधृ॒षे॒ । शव॑: । ३३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नाधृष आ दधृषते धृषाणो धृषितः शवः। पुरा यथा व्यथिः श्रव इन्द्रस्य नाधृषे शवः ॥
स्वर रहित पद पाठन । आऽधृषे । आ । दधृषते । धृषाण: । धृषित: । शव: । पुरा ।यथा । व्यथि:। श्रव: । इन्द्रस्य । न । आऽधृषे । शव: । ३३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
विषय - शत्रुधर्षक बल
पदार्थ -
१. वह इन्द्र (न आधृषे) = औरों से अभिभूत नहीं होता, (आदधृषते) = यह शत्रुओं को समन्तात् धर्षण करनेवाला होता है, (धृषाण:) = यह शत्रुओं का धर्षण करनेवाला है ही। (धृषित:) = [धृषितं] (शवः) = इसका बल शत्रुओं का धर्षक है [धूषितं अस्य अस्ति]। २. (इन्द्रस्य) = इस शत्रु-संहारक प्रभु का (अव:) = ज्ञान (पुरा यथा) = पहले की भाँति, अर्थात् सदा से (व्यथि:) = शत्रुओं को पीड़ित करनेवाला है। प्रभु का ज्ञान हमारे सब शत्रुओं का संहारक है। वस्तुत: उस प्रभु का (शव:) = बल (न आधृषे) = कभी भी शत्रुओं से धर्षणीय नहीं होता।
भावार्थ -
हम प्रभु का ज्ञान प्राप्त करते हुए प्रभु के बल को धारण करते हैं और इसप्रकार शत्रुओं से धर्षणीय नहीं होते।
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