Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 33

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
    सूक्त - जाटिकायन देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - इन्द्रस्तव सूक्त

    स नो॑ ददातु॒ तां र॒यिमु॒रुं पि॒शङ्ग॑संदृशम्। इन्द्रः॒ पति॑स्तु॒विष्ट॑मो॒ जने॒ष्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । न॒: । द॒दा॒तु॒ । ताम् । र॒यिम् । उ॒रुम् । पि॒शङ्ग॑ऽसंदृशम् । इन्द्र॑:। पति॑: । तु॒विऽत॑म: । जने॑षु । आ ॥३३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो ददातु तां रयिमुरुं पिशङ्गसंदृशम्। इन्द्रः पतिस्तुविष्टमो जनेष्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । न: । ददातु । ताम् । रयिम् । उरुम् । पिशङ्गऽसंदृशम् । इन्द्र:। पति: । तुविऽतम: । जनेषु । आ ॥३३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 33; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (स:) = वह (इन्द्र न:) = हमारे लिए (तां रयिम्) = उस ज्ञानरूप धन को (ददातु) = दे जोकि (उरुम्) = विशाल है, (पिशङ्ग-सन्दुशम्) = तेज:स्वरूप, प्रभापटल के रूप में प्रकट होनेवाला है। २. (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (पति:) = हमारे रक्षक है-ज्ञानेश्वर्य प्राप्त कराके हमें शत्रुओं के आक्रमण से बचाते हैं। (तुविःतमः) = सब प्रकार के उत्कर्षवाले हैं-महान् व प्रवृद्ध हैं। (जनेषु आ) = सब मनुष्यों में समन्तात् सत्तावाले हैं।

    भावार्थ -

    वे 'तुवि:तमः' प्रभु 'विशाल, तेज:स्वरूप, प्रभापटल के रूप में प्रकट होनेवाले' हमारे लिए ज्ञानधन प्राप्त कराके हमारा रक्षण करते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top