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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - अश्विनीकुमारौ, द्यौष्पिता
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - आत्मगोपन सूक्त
धि॒ये सम॑श्विना॒ प्राव॑तं न उरु॒ष्या ण॑ उरुज्म॒न्नप्र॑युच्छन्। द्यौ॒ष्पित॑र्या॒वय॑ दु॒च्छुना॒ या ॥
स्वर सहित पद पाठधि॒ये । सम् । अ॒श्वि॒ना॒ । प्र । अ॒व॒त॒म् । न॒: । उ॒रु॒ष्य । न॒: । उ॒रु॒ऽज्म॒न् । अप्र॑ऽयुच्छन् । द्यौ᳡: । पित॑: । य॒वय॑ । दु॒च्छुना॑ । या ॥४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
धिये समश्विना प्रावतं न उरुष्या ण उरुज्मन्नप्रयुच्छन्। द्यौष्पितर्यावय दुच्छुना या ॥
स्वर रहित पद पाठधिये । सम् । अश्विना । प्र । अवतम् । न: । उरुष्य । न: । उरुऽज्मन् । अप्रऽयुच्छन् । द्यौ: । पित: । यवय । दुच्छुना । या ॥४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
विषय - द्यौष्पिता
पदार्थ -
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (धिये) = बुद्धि के लिए (न:) = हमें (संप्रावतम्) = सम्यक रक्षित कीजिए। हे (उरुज्मन्) = विशाल गतिवाले प्रभो! आप (अप्रयुच्छन्) = किसी प्रकार का प्रमाद न करते हुए (नः उरुष्य) = हमारा रक्षण कीजिए। हे (द्यौष्पित:) = प्रकाशमय स्वरूप में निवास करनेवाले [द्यौः] रक्षक [पित:] प्रभो! या जो भी (दुच्छुना) = दुर्गति है, उसे (यावय) = हमसे पृथक् कीजिए।
भावार्थ -
प्राणसाधना द्वारा हम बुद्धि प्राप्त करें, गतिशील बनकर अपना रक्षण करनेवाले हों और ज्ञानी बनकर दुर्गति से दूर हों।
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