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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - परस्परचित्तैदीकरण सूक्त
अ॒भि ति॑ष्ठामि ते म॒न्युं पार्ष्ण्या॒ प्रप॑देन च। यथा॑व॒शो न वादि॑षो॒ मम॑ चित्तमु॒पाय॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । ति॒ष्ठा॒मि॒ । ते॒ । म॒न्युम् । पार्ष्ण्या॑ । प्रऽप॑देन । च॒ । यथा॑ । अ॒व॒श: । न । वादि॑ष: । मम॑ । चि॒त्तम् । उ॒प॒ऽआय॑सि ॥४२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि तिष्ठामि ते मन्युं पार्ष्ण्या प्रपदेन च। यथावशो न वादिषो मम चित्तमुपायसि ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । तिष्ठामि । ते । मन्युम् । पार्ष्ण्या । प्रऽपदेन । च । यथा । अवश: । न । वादिष: । मम । चित्तम् । उपऽआयसि ॥४२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 42; मन्त्र » 3
विषय - यथा अवशा: न वादिषः
पदार्थ -
१. मैं (ते मन्युम्) = तेरे क्रोध को (पायो) = पैर के अपरभग से-एड़ी से (च) = तथा (प्रपदेन) = पादान से (अभितिष्ठामि) = ऊपर स्थित होकर निष्पीड़ित कर डालता हूँ। २. (यथा) = जिससे (अवश:) = क्रोध के परवश हुआ-हुआ तू (न वादिष:) = ऊटपटौंग बोलनेवाला न हो और (मम चित्तम् उपायसि) = मेरे मन को तू समीपता से प्रास होता है-मेरे मन के अनुकूल मनवाला होता है।
भावार्थ -
हम क्रोध को पैर की ठोकर से ठुकरा दें। क्रोध के परवश होकर कटुवचन न बोलें। हम एक-दूसरे से मिलें हुए चित्तवाले हों।
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