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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिरस्
देवता - श्येनः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - स्वस्तिवाचन सूक्त
श्ये॒नोऽसि॑ गाय॒त्रच्छ॑न्दा॒ अनु॒ त्वा र॑भे। स्व॒स्ति मा॒ सं व॑हा॒स्य य॒ज्ञस्यो॒दृचि॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठश्ये॒न: । अ॒सि॒ । गा॒य॒त्रऽछ॑न्दा: । अनु॑ । त्वा॒ । आ । र॒भे॒ । स्व॒स्ति । मा॒ । सम् । व॒ह॒ । अ॒स्य । य॒ज्ञस्य॑ । उ॒त्ऽऋचि॑ । स्वाहा॑ ॥४८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
श्येनोऽसि गायत्रच्छन्दा अनु त्वा रभे। स्वस्ति मा सं वहास्य यज्ञस्योदृचि स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठश्येन: । असि । गायत्रऽछन्दा: । अनु । त्वा । आ । रभे । स्वस्ति । मा । सम् । वह । अस्य । यज्ञस्य । उत्ऽऋचि । स्वाहा ॥४८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
विषय - श्येन, ऋभु, वृषा
पदार्थ -
१. जीवन के प्रात:सवन में तू (श्येनः असि) = [श्यायतेनिकर्मणः] खूब ही ज्ञान प्रास करनेवाला है। (गायत्रच्छन्दा:) = तू गायत्र छन्दवाला है [गयाः प्राणाः, तान् तत्रे] प्राणशक्ति के रक्षण की प्रबल कामनावाला है। (त्वा अनु आरभे) = तेरा लक्ष्य करके मैं जीवन की क्रियाओं को आरम्भ करता हूँ। मेरी सब क्रियाएँ उस गायत्र सवन को सम्यक् पूर्ण करने की दृष्टि से होती हैं। [क] हे प्रभो! आप (मा) = मुझे (अस्य यज्ञस्य उदृचि) = इस प्रात:सवन नामक यज्ञ की अन्तिम ऋचा तक, अर्थात् समासि तक (स्वस्ति संवह) = सम्यक् कल्याण प्राप्त कराइए। इसके लिए मैं (स्वाहा) = आपके प्रति अपना अर्पण करता हूँ।
भावार्थ -
जीवन के प्रात:सवन में हम श्येन-खूब ही ज्ञान की रुचिवाले व प्राणरक्षण की इच्छावाले हों। माध्यन्दिन सवन में 'काम-क्रोध-लोभ' को रोकने की इच्छावाले तथा अपने में शक्ति का सेचन करनेवाले हों। तृतीय सवन में ज्ञानी बनकर ज्ञान-प्रसार द्वारा जगती के हित में प्रवृत्त हों। प्रभुकृपा से हमारे तीनों सवन पूर्ण हों।
विशेष -
जो मनुष्य ज्ञान के निगरण से जीवन का प्रारम्भ करता है [ब्रह्मचारी-ज्ञान को चरनेवाला] और ज्ञानोपदेश में ही जीवन के अन्तिम भाग को लगाता है [गिरति-उपदिशति] वह गर्ग व गर्ग-पुत्र 'गाय' कहलाता है। यह गाये ही अगले सूक्त का ऋषि है