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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 3
वृषा॑सि त्रि॒ष्टुप्छ॑न्दा॒ अनु॒ त्वा र॑भे। स्व॒स्ति मा॒ सं व॑हा॒स्य य॒ज्ञस्यो॒दृचि॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । अ॒सि॒ । त्रि॒स्तुप्ऽछ॑न्दा: । अनु॑ । त्वा॒ । आ । र॒भे॒ । स्व॒स्ति । मा॒ । सम् । व॒ह॒ । अ॒स्य । य॒ज्ञस्य॑ । उ॒त्ऽऋचि॑ । स्वाहा॑ ॥४८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषासि त्रिष्टुप्छन्दा अनु त्वा रभे। स्वस्ति मा सं वहास्य यज्ञस्योदृचि स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । असि । त्रिस्तुप्ऽछन्दा: । अनु । त्वा । आ । रभे । स्वस्ति । मा । सम् । वह । अस्य । यज्ञस्य । उत्ऽऋचि । स्वाहा ॥४८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 3
विषय - श्येन, ऋभु, वृषा
पदार्थ -
३. (वृषा असि) = तू शक्ति व सुखों का सेचन करनेवाला है, (त्रिष्टुप्छन्दा:) = जीवन के इस माध्यन्दिन [त्रैष्टुभ छन्दवाले]-सवन में तू 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों को रोकने की कामनावाला है। (त्वा अनु आरभे) = तेरा लक्ष्य करके मैं जीवन की सब क्रियाओं को करता हूँ। [ग] हे प्रभो! आप मुझे इस यज्ञ की समाप्ति तक कल्याणपूर्वक ले-चलिए। मैं आपके प्रति अपना अर्पण करता
भावार्थ -
जीवन के प्रात:सवन में हम श्येन-खूब ही ज्ञान की रुचिवाले व प्राणरक्षण की इच्छावाले हों। माध्यन्दिन सवन में 'काम-क्रोध-लोभ' को रोकने की इच्छावाले तथा अपने में शक्ति का सेचन करनेवाले हों। तृतीय सवन में ज्ञानी बनकर ज्ञान-प्रसार द्वारा जगती के हित में प्रवृत्त हों। प्रभुकृपा से हमारे तीनों सवन पूर्ण हों।
विशेष -
जो मनुष्य ज्ञान के निगरण से जीवन का प्रारम्भ करता है [ब्रह्मचारी-ज्ञान को चरनेवाला] और ज्ञानोपदेश में ही जीवन के अन्तिम भाग को लगाता है [गिरति-उपदिशति] वह गर्ग व गर्ग-पुत्र 'गाय' कहलाता है। यह गाये ही अगले सूक्त का ऋषि है