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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
सूक्त - गार्ग्य
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अग्निस्तवन सूक्त
न॒हि ते॑ अग्ने त॒न्वः॑ क्रू॒रमा॒नंश॒ मर्त्यः॑। क॒पिर्ब॑भस्ति॒ तेज॑नं॒ स्वं ज॒रायु॒ गौरि॑व ॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । त॒न्व᳡: । क्रू॒रम् । आ॒नंश॑ । मर्त्य॑: । क॒पि: । ब॒भ॒स्ति॒ । तेज॑नम् । स्वम् । ज॒रायु॑ । गौ:ऽइ॑व ॥४९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
नहि ते अग्ने तन्वः क्रूरमानंश मर्त्यः। कपिर्बभस्ति तेजनं स्वं जरायु गौरिव ॥
स्वर रहित पद पाठनहि । ते । अग्ने । तन्व: । क्रूरम् । आनंश । मर्त्य: । कपि: । बभस्ति । तेजनम् । स्वम् । जरायु । गौ:ऽइव ॥४९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
विषय - कपिः बभस्ति तेजनम्
पदार्थ -
१. (अग्ने) = हे तेजस्विन् प्रभो! (मर्त्यः) = वह मनुष्य (ते) = आपके दिये हुए (तन्य:) = इस शरीर के (करम्) = [कृत] कर्तन व छेदन को (नहि आनंश) = नहीं प्राप्त करता, जो (कपिः) = [कं पिबति] शरीरस्थ रेत:कणरूप जल को पीनेवाला-शरीर में ही खपानेवाला तथा (तेजनम्) = [तेज-to protect] रक्षा के महान् साधन इस वीर्य को (बभस्ति) = [बभस्तिरत्तिकर्मा-नि० ५.१२] शरीर में उसी प्रकार निगीर्ण करनेवाला होता है (इव) = जैसे (गौ:) = एक गौ (स्वं जरायु) = अपने जेर को निगीर्ण कर लेती है। निगरण के कारण ही यह 'गार्ग्य' कहलाता है।
भावार्थ -
हम उत्पन्न वीर्य को शरीर में ही खपानेवाले बनें। इससे शरीर का कर्तन व छेदन नहीं होगा। यह बीर्य 'तेजन' है, हमारा रक्षण करनेवाला है।
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