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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
मे॒ष इ॑व॒ वै सं च॒ वि चो॒र्वच्यसे॒ यदु॑त्तर॒द्रावुप॑रश्च॒ खाद॑तः। शी॒र्ष्णा शिरोऽप्स॒साप्सो॑ अ॒र्दय॑न्नं॒शून्ब॑भस्ति॒ हरि॑तेभिरा॒सभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमे॒ष:ऽइ॑व । वै । सम् । च॒ । वि । च॒ । उ॒रु । अ॒च्य॒से॒ । यत् । उ॒त्त॒र॒ऽद्रौ । उप॑र: । च॒ । खाद॑त: । शी॒र्ष्णा: । शिर॑: । अप्स॑सा । अप्स॑: । अ॒र्दय॑न् । अं॒शून् । ब॒भ॒स्ति॒ । हरि॑तेभि: । आ॒सऽभि॑:॥४९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मेष इव वै सं च वि चोर्वच्यसे यदुत्तरद्रावुपरश्च खादतः। शीर्ष्णा शिरोऽप्ससाप्सो अर्दयन्नंशून्बभस्ति हरितेभिरासभिः ॥
स्वर रहित पद पाठमेष:ऽइव । वै । सम् । च । वि । च । उरु । अच्यसे । यत् । उत्तरऽद्रौ । उपर: । च । खादत: । शीर्ष्णा: । शिर: । अप्ससा । अप्स: । अर्दयन् । अंशून् । बभस्ति । हरितेभि: । आसऽभि:॥४९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
विषय - सात्त्विक जीवन
पदार्थ -
१. (मेषः इव) = स्पर्धावाले की भांति-उन्नति-पथ पर औरों से आगे बढ़ जाने की स्पर्धावाला वीर्य-रक्षक तू (सम् अच्यसे) = औरों के साथ मिलकर चलता है (च) = और (वै उरु च) = खूब ही विशाल (वि अच्यसे) = विविध गतियोंवाला होता है। इस वीर्यरक्षक पुरुष के जीवन में उन्नति पथ पर आगे बढ़ने की स्पर्धा होती है। यह औरों के साथ मिलकर गतिवाला होता है। इसके विविध कार्य विशालता से युक्त होते हैं । (यत्) = क्योंकि (उत्तर-द्रौ) = [उत्तर-जीव, द्रु-शरीर-वृक्ष] इसके इस जीव-शरीर में यह स्वयं (च) = तथा (उपरः) = मेघ भी (खादत:) = खाते हैं। यह अकेला नहीं खाता, यह यज्ञ करता हुआ मेषों को भी जन्म देनेवाला होता है-'यज्ञाद् भवति पर्जन्यः'। २. (शीर्ष्णा) = सिर के दृष्टिकोण से यह शिर-शिखर पर पहुँचता है और (अप्ससा अप्स:) = आकृति से तो यह सौन्दर्य ही होता है [अप्सस-from, beauty] (अंशून्) = ज्ञान की रश्मियों की (अर्दयन्) = याचना करता हुआ यह (हरितेभिः आसभिः) = रोग-हरण की भावनाओं के साथ तथा वासनाओं को परे फेंकने की भावनाओं के साथ (बभस्ति) = खाता है। भोजन खाते हुए इसका दृष्टिकोण यही होता है कि यह उसे नीरोगता व निष्पापता देनेवाला हो।
भावार्थ -
संसार में हम उन्नति-पथ पर आगे बढ़ने की स्पर्धावाले बनें। सदा यज्ञ करके यज्ञशेष का सेवन करें। ज्ञान के दृष्टिकोण से शिखर पर तथा तेजस्वी, सुन्दर आकृतिवाले हों। ज्ञान की याचना करें। भोजन इस दृष्टिकोण से करें कि यह हमें नौरोगता देनेवाला हो तथा सात्त्विकता को उत्पन्न करके यह वासनाओं को हमसे दूर रक्खे।
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