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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
नि गावो॑ गो॒ष्ठे अ॑सद॒न्नि मृ॒गासो॑ अविक्षत। न्यू॒र्मयो॑ न॒दीनं॒ न्यदृष्टा॑ अलिप्सत ॥
स्वर सहित पद पाठनि । गाव॑: । गो॒ऽस्थे । अ॒स॒द॒न् । नि । मृ॒गास॑: । अ॒वि॒क्ष॒त॒ । नि । ऊ॒र्मय॑: । न॒दीना॑म् । नि । अ॒दृष्टा॑: । अ॒लि॒प्स॒त॒ ॥५२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नि गावो गोष्ठे असदन्नि मृगासो अविक्षत। न्यूर्मयो नदीनं न्यदृष्टा अलिप्सत ॥
स्वर रहित पद पाठनि । गाव: । गोऽस्थे । असदन् । नि । मृगास: । अविक्षत । नि । ऊर्मय: । नदीनाम् । नि । अदृष्टा: । अलिप्सत ॥५२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
विषय - अन्तर्मुख-यात्रा
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार सूर्य-सम्पर्क से स्वस्थ शरीरवाले व्यक्ति के जीवन में (गावः) = इन्द्रियाँ (गोष्ठ) = शरीररूप गोष्ठ में (नि असदन) = निश्चय से स्थित होती हैं। ये विषयों में भटकती नहीं रहती। अब (मृगास:) = ये आत्मान्वेषण की वृत्तिवाले व्यक्ति (नि अविक्षत) = हृदयान्तरिक्ष में ही प्रवेश करनेवाले होते हैं। २. इन (नदीनाम्) = प्रभु का स्तवन करनेवालों की (ऊर्मयः) = 'शोकमोही क्षुत्पिपासे जरामृत्यू षर्मय:'-छह ऊर्मियाँ, अर्थात् जीवन-समुद्र में उठनेवाली शोक-मोह, भूख-प्यास, जरा व मृत्युरूप छह तरङ्गे (नि अदृष्ट:) = निश्चय से अदृष्ट हो जाती हैं। इनके जीवन में ये छह तरङ्गे नहीं उठती। ये तो (नि अलिप्सत) = निश्चय से उस आत्मतत्त्व को ही पाने की कामनावाले होते हैं।
भावार्थ -
स्वस्थ पुरुष की इन्द्रियाँ विषयों में नहीं भटकतीं। ये आत्मान्वेषक हृदयान्तरिक्ष में प्रवेश करते हैं। इनके जीवन समुद्र में शोक-मोह आदि की तरङ्गे नहीं उठतीं। ये निश्चय ही प्रभु-प्राप्ति की कामनाबाले होते हैं।
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