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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
उत्सूर्यो॑ दि॒व ए॑ति पु॒रो रक्षां॑सि नि॒जूर्व॑न्। आ॑दि॒त्यः पर्व॑तेभ्यो वि॒श्वदृ॑ष्टो अदृष्ट॒हा ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । सूर्य॑: । दि॒व: । ए॒ति॒ । पु॒र: । रक्षां॑सि । नि॒ऽजूर्व॑न् । आ॒दि॒त्य: । पर्व॑तेभ्य: । वि॒श्वऽदृ॑ष्ट: । अ॒दृ॒ष्ट॒ऽहा ॥५२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्सूर्यो दिव एति पुरो रक्षांसि निजूर्वन्। आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । सूर्य: । दिव: । एति । पुर: । रक्षांसि । निऽजूर्वन् । आदित्य: । पर्वतेभ्य: । विश्वऽदृष्ट: । अदृष्टऽहा ॥५२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
विषय - सूर्य:
पदार्थ -
१. (सूर्यः) = सबको कर्मों में प्रेरक यह सूर्य (पुर:) = सामने-पूर्व दिशा में (रक्षांसि) = हमारे शरीर में उपद्रव करनेवाले रोगकृमियों को (निजूर्वन्) = नितरां हिंसित करता हुआ (दिव: उत् एति) = अन्तरिक्ष प्रदेश से उदित होता है। २. वह (आदित्य:) = भूपृष्ठ से जलों का आदान करनेवाला सूर्य (पर्वतेभ्यः) = मेघों के लिए उदित होता है। जलों को वाष्पीभूत करके ऊपर ले-जाता हुआ यह सूर्य मेषों की उत्पत्ति का कारण बनता है। यह (विश्वदृष्टः) = सब प्राणियों से देखा जाता है, और (अदृष्टहा) = अदृष्ट रोगकृमियों का भी विनाशक है।
भावार्थ -
उदय होता हुआ सूर्य रोगकृमियों का संहार करता है। यह मेघों के निर्माण में कारण बनता है।
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