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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अग्नीषोमौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अमित्रदम्भन सूक्त
अ॒स्मै क्ष॒त्रम॑ग्नीषोमाव॒स्मै धा॑रयतं र॒यिम्। इ॒मं रा॒ष्ट्रस्या॑भीव॒र्गे कृ॑णु॒तं यु॒ज उत्त॑रम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । क्ष॒त्रम् । अ॒ग्नी॒षो॒मौ॒ । अ॒स्मै । धा॒र॒य॒त॒म् । र॒यिम् । इ॒मम् । रा॒ष्ट्रस्य॑ । अ॒भि॒ऽव॒र्गे । कृ॒णु॒तम् । यु॒जे। उत्ऽत॑रम् ॥५४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मै क्षत्रमग्नीषोमावस्मै धारयतं रयिम्। इमं राष्ट्रस्याभीवर्गे कृणुतं युज उत्तरम् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । क्षत्रम् । अग्नीषोमौ । अस्मै । धारयतम् । रयिम् । इमम् । राष्ट्रस्य । अभिऽवर्गे । कृणुतम् । युजे। उत्ऽतरम् ॥५४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 54; मन्त्र » 2
विषय - अग्नीषोमौ
पदार्थ -
१. जीवन में 'अग्नि और सोम', 'ज्योति व आप:' का समन्वय आवश्यक है। अग्नि 'अग्रता, प्रचण्डता, उत्साह, वीरता' आदि का प्रतीक है और सोम 'शान्ति व नम्रता' का। दोनों का मेल जीवन को सुन्दर बनाता है। केवल अग्नि' जला देगा और केवल 'सोम' ठण्डा ही कर देगा, अतः मन्त्र में कहा है कि हे (अग्नीषोमौ) = अग्नि व सोमतत्त्वो! (अस्मै) = इस साधक के लिए (क्षत्रम्) = बल को (धारयतम) = धारण करो। (अस्मै) = इसके लिए (रयिम्) = धन को धारण करो। २. (इमम) = इसे (राष्ट्रस्य) = राष्ट्र के (अभिवर्ग) = मण्डल [circuit, compass] में (उत्तरं कृणुतम्) = उत्कृष्ट स्थिति में करो। प्रभु कहते हैं कि मैं इसे (युजे) = उत्कृष्ट कर्मों में लगाता हूँ। अग्नि और सोम का समन्वय हमें मार्ग-भ्रष्ट नहीं होने देता।
भावार्थ -
अग्नि और सोम [तीव्रता व नम्रता] का समन्वय होने पर हमें बल व ऐश्वर्य प्राप्त होता है। अग्नीषोमौ' का उपासक राष्ट्र में उन्नत स्थिति में होता है। प्रभु इसे उत्कृष्ट कर्मों में लगाये रखते हैं।
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