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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
    सूक्त - शन्ताति देवता - रुद्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्परक्षण सूक्त

    नमो॑ऽस्त्वसि॒ताय॒ नम॒स्तिर॑श्चिराजये। स्व॒जाय॑ ब॒भ्रवे॒ नमो॒ नमो॑ देवज॒नेभ्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒सि॒ताय॑ । नम॑: । तिर॑श्चिऽराजये । स्व॒जाय॑ । ब॒भ्रवे॑ । नम॑: । नम॑: । दे॒व॒ऽज॒नेभ्य॑: ॥५६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमोऽस्त्वसिताय नमस्तिरश्चिराजये। स्वजाय बभ्रवे नमो नमो देवजनेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम: । अस्तु । असिताय । नम: । तिरश्चिऽराजये । स्वजाय । बभ्रवे । नम: । नम: । देवऽजनेभ्य: ॥५६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 56; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (असिताय) = कृष्णवर्ण सर्पराज के लिए (नमः अस्तु) = नमस्कार हो-इससे हम दूर ही रहते हैं, दूर से ही इसे प्रणाम करते हैं। (तिरश्चिराजये नम:) = तिर्यग् अवस्थित वलियोंवाले-तिरछी धारियोंवाले सर्प के लिए भी नमस्कार हो-इससे हम दूर से ही बचें। (स्वजाय) = शरीर में चिपट जानेवाले सर्प के लिए तथा (बभ्रवे) = भूरे रङ्गवाले सर्प के लिए (नमः) = नमस्कार हो-इनसे हम बचें और वज्रप्रहार से इन्हें समाप्त करें। २. (देवजनेभ्यः नमः) = सर्प-विष-चिकित्सा करनेवाले वैद्यों के लिए हम उचित सत्कार प्रास कराते हैं।

    भावार्थ -

    'असित, तिरश्चिराजि, स्वज व बभू' नामक सभी सपों से हम बचें, सर्पविष चिकित्सकों का उचित आदर करें।

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