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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 58

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः, द्यावापृथिवी, सविता छन्दः - जगती सूक्तम् - यशः प्राप्ति सूक्त

    य॒शसं॒ मेन्द्रो॑ म॒घवा॑न्कृणोतु य॒शसं॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे इ॒मे। य॒शसं॑ मा दे॒वः स॑वि॒ता कृ॑णोतु प्रि॒यो दा॒तुर्दक्षि॑णाया इ॒ह स्या॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒शस॑म् । मा॒ । इन्द्र॑: । म॒घऽवा॑न् । कृ॒णो॒तु॒ । य॒शस॑म् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । इ॒मे इति॑ । य॒शस॑म् । मा॒ । दे॒व:। स॒वि॒ता । कृ॒णो॒तु॒ । प्रि॒य: । दा॒तु: । दक्षि॑णाया: । इ॒ह । स्या॒म् ॥५८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यशसं मेन्द्रो मघवान्कृणोतु यशसं द्यावापृथिवी उभे इमे। यशसं मा देवः सविता कृणोतु प्रियो दातुर्दक्षिणाया इह स्याम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यशसम् । मा । इन्द्र: । मघऽवान् । कृणोतु । यशसम् । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । इमे इति । यशसम् । मा । देव:। सविता । कृणोतु । प्रिय: । दातु: । दक्षिणाया: । इह । स्याम् ॥५८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 58; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (मा) = मुझे (मघवान् इन्द्रः) = ऐश्वर्यशाली सर्वशक्तिमान् प्रभु (यशसं कृणोत) = यशस्वी बनाए। मैं भी ऐश्वर्य व शक्ति से सम्पन्न बनकर यश प्राप्त करे। (इमे उभे) = ये दोनों (द्यावापृथिवी) = धुलोक व पृथिवीलोक (यशसम्) = मुझे यशस्वी बनाएँ। मेरा मस्तिष्करूप द्युलोक ज्ञानसूर्य से दीप्त हो और शरीररूप पृथिवीलोक दृढ़ हो। ये ज्ञानीदीप्ति व शक्ति मुझे यशस्वी बनाएँ। २. (मा) = मुझे (सविता देव:) = प्रेरक व दिव्य गुणों का पुञ्ज प्रभु (यशसं कृणोतु) = यशस्वी करे। मैं प्रभु-प्रेरणा को सुननेवाला बनूं और दिव्य गुणों का अपने में वर्धन करूँ। इसप्रकार ही तो मेरा जीवन यशस्वी बनेगा। मैं (इह) = इस जीवन में (दक्षिणायाः दातु) = सब दक्षिणाओं के देनेवाले उस प्रभु का (प्रियः स्याम्) = प्रिय बनें।

    भावार्थ -

    हम 'धन, शक्ति, ज्ञान व शरीर की दृढ़ता' को धारण करते हुए यशस्वी बनें। प्रभु-प्रेरणा को सुनते हुए दिव्य गुणों को धारण करें और उस सर्वप्रद प्रभु के प्रिय बनें।

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