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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 63/ मन्त्र 4
सूक्त - द्रुह्वण
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वर्चोबलप्राप्ति सूक्त
संस॒मिद्यु॑वसे वृष॒न्नग्ने॒ विश्वा॑न्य॒र्य आ। इ॒डस्प॒दे समि॑ध्यसे॒ स नो॒ वसू॒न्या भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽस॑म् । इत् । यु॒व॒से॒ । वृ॒ष॒न् । अग्ने॑ । विश्वा॑नि । अ॒र्य: । आ । इ॒ड: । प॒दे । सम् । इ॒ध्य॒से॒ । स: । न॒: । वसू॑नि । आ । भ॒र॒ ॥६३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ। इडस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽसम् । इत् । युवसे । वृषन् । अग्ने । विश्वानि । अर्य: । आ । इड: । पदे । सम् । इध्यसे । स: । न: । वसूनि । आ । भर ॥६३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 63; मन्त्र » 4
विषय - 'वृषा, अग्रि, अर्य' आचार्य
पदार्थ -
१. विद्यार्थी आचार्य से कहता है कि हे (वृषन्) = मुझे ज्ञान-जल से सिक्त करनेवाले, (अग्ने) = मुझे आगे-और-आगे ले-चलनेवाले आचार्य! (अर्य:) = आप जितेन्द्रिय हो और सब ज्ञानों के स्वामी हो। (इत्) = निश्चय से (सम्) = सम्यक् और (सं आ युवसे) = अच्छी प्रकार ही मुझे बुराइयों से पृथक् करते हो और अच्छाई के साथ जोड़ते हो। २. आप (इड:पदे) = इस ज्ञान की बाणी के मार्ग में (समिध्यसे) = खूब ही चमकते हो। (सः) = वे आप (न:) = हमारे लिए (वसूनि) = इन जान-साधनों को (आभर) = समन्तात् भूत कीजिए। हमें ज्ञानदीस करके उस ज्ञानाग्नि में सब निति-बन्धनों को भस्म कर दीजिए।
भावार्थ -
ज्ञानदीप्त आचार्य हमें ज्ञानसिक्त करके सब बुराइयों से पृथक् करें।
विशेष -
यह ज्ञानदीस व्यक्ति स्थितप्रज्ञ बनता है। इसकी मति विषयों से आन्दोलित नहीं होती। इसी से यह अथर्वा' कहलाता है। यह अथर्वा ही अगले छह सूक्तों का ऋषि है।