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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - विश्वे देवाः, मनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
सं जा॑नीध्वं॒ सं पृ॑च्यध्वं॒ सं वो॒ मनां॑सि जानताम्। दे॒वा भा॒गं यथा॒ पूर्वे॑ संजाना॒ना उ॒पास॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । जा॒नी॒ध्व॒म् । सम् । पृ॒च्य॒ध्व॒म् । सम् । व॒: । मनां॑सि । जा॒न॒ता॒म् । दे॒वा: । भा॒गम् । यथा॑ । पूर्वे॑ । स॒म्ऽजा॒ना॒ना: । उ॒प॒ऽआस॑ते ॥६४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सं जानीध्वं सं पृच्यध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । जानीध्वम् । सम् । पृच्यध्वम् । सम् । व: । मनांसि । जानताम् । देवा: । भागम् । यथा । पूर्वे । सम्ऽजानाना: । उपऽआसते ॥६४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 64; मन्त्र » 1
विषय - संज्ञान
पदार्थ -
१. आचार्य का विद्यार्थी को प्रथम उपदेश यह है कि तुम (संजानीध्वम्) = समान ज्ञानयुक्त होओ। ज्ञान ही सब व्यवहारों का मूल है। समान ज्ञानवाले होकर (संपृच्यध्वम्) = मिलकर कार्यों को करनेवाले होओ। (व:) = तुम्हारे (मनांसि) = मन (संजानताम्) = परस्पर विरुद्ध ज्ञानजनक न हों। अन्त:करण समान ज्ञान को पैदा करेगा तो संज्ञानवाले बनकर मिलकर कर्मों को करनेवाले होंगे। २. (यथा) = जिस प्रकार (संज्ञानाना:) = संज्ञानवाले (पूर्वे) = पालन व पूरण करनेवाले (देवा:) = देव (भागम् उपासते) = अपने-अपने कर्तव्य का उपासन करते हैं, उसी प्रकार हम भी 'सांमनस्य, संज्ञान व सम्पर्क' वाले हों।
भावार्थ -
देव संज्ञानवाले होते हए अपने कर्तव्यकर्मों को करते हैं, उसी प्रकार हम भी संज्ञानवाले होकर अपने-अपने कर्तव्यों को करें।
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