Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 67

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रः, इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    परि॒ वर्त्मा॑नि स॒र्वत॒ इन्द्रः॑ पू॒षा च॑ सस्रतुः। मुह्य॑न्त्व॒द्यामूः सेना॑ अमित्राणां परस्त॒राम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । वर्त्मा॑नि । स॒र्वत॑: । इन्द्र॑: । पू॒षा । च॒ । स॒स्र॒तु॒: । मुह्य॑न्तु । अ॒द्य । अ॒मू: । सेना॑:। अ॒मित्रा॑णाम् । प॒र॒:ऽत॒राम् ॥६७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि वर्त्मानि सर्वत इन्द्रः पूषा च सस्रतुः। मुह्यन्त्वद्यामूः सेना अमित्राणां परस्तराम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । वर्त्मानि । सर्वत: । इन्द्र: । पूषा । च । सस्रतु: । मुह्यन्तु । अद्य । अमू: । सेना:। अमित्राणाम् । पर:ऽतराम् ॥६७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. राष्ट्र में शत्रुओं से मोर्चा लेनेवाला 'इन्द्र' है। सैनिकों की भोजन-व्यवस्था को ठीक रखनेवाला 'पूषा' है। (इन्द्रः पूषा च) = ये इन्द्र और पूषा (सर्वत:) = सब दिशाओं में (वर्त्मानि) = सञ्चरण मार्गों को (परिसस्त्रतुः) = चारों ओर से निरुद्ध करके गति करते हैं। शत्रुओं को प्रवेश के लिए द्वार उपलब्ध नहीं होता। २. (अद्य) = अब (अमू:) = वे दूर पर दिखाई देती हुई (अमित्राणां सेना:) = शत्रुओं की सेनाएँ-रथ, तुरग, पदाति आदि (परस्तराम्) = अशियेन-बहुत ही (मुहान्तु) = व्यामूढचित्त कार्याकार्य-ज्ञान-शून्य हो जाएँ।

    भावार्थ -

    सेनापति व अन्नाध्यक्ष सब ओर से मार्गों पर गति करते हुए शत्रु-सैन्यों के लिए मार्गों को निरुद्ध कर दें। शत्र-सैन्य मूढ बनकर आक्रमण करने का साहस छोड़ बैठे।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top