Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 71

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - अन्न सूक्त

    यदन्न॒मद्मि॑ बहु॒धा विरू॑पं॒ हिर॑ण्य॒मश्व॑मु॒त गाम॒जामवि॑म्। यदे॒व किं च॑ प्रतिज॒ग्रहा॒हम॒ग्निष्टद्धोता॒ सुहु॑तं कृणोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अन्न॑म् । अद्मि॑ । ब॒हु॒ऽधा । विऽरू॑पम् । हिर॑ण्यम् । अश्व॑म् । उ॒त । गाम् । अ॒जाम् । अवि॑म्। यत् । ए॒व । किम् । च॒ । प्र॒ति॒ऽज॒ग्रह॑ । अ॒हम् । अ॒ग्नि: । तत् । होता॑ । सुऽहु॑तम् । कृ॒णो॒तु॒ ॥७१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदन्नमद्मि बहुधा विरूपं हिरण्यमश्वमुत गामजामविम्। यदेव किं च प्रतिजग्रहाहमग्निष्टद्धोता सुहुतं कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अन्नम् । अद्मि । बहुऽधा । विऽरूपम् । हिरण्यम् । अश्वम् । उत । गाम् । अजाम् । अविम्। यत् । एव । किम् । च । प्रतिऽजग्रह । अहम् । अग्नि: । तत् । होता । सुऽहुतम् । कृणोतु ॥७१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 71; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जो (विरूपम्) = विविधरूपोंवाले (अन्नम्) = अन्न को (बहुधा) = बहुत प्रकार से (अहम् अधि) = मैं खा लेता हूँ। भूख की पीड़ा के कारण और भोज्याभोज्य विभाग के बिना जो मैंने खा लिया है, (तत्) =  उस मेरे अन्नदोष को वह (होता अग्निः) = सब वस्तुओं को देनेवाला अग्रणी प्रभु (सुहृतं कृणोतु) = सुहुत करे। विवशता में मैं कुछ खा बैहूँ तो प्रभु के अनुग्रह और प्रेरणा से उसे यज्ञ का रूप देने का प्रयत्न करूँ-त्याग करके बचे को ही खाऊँ। २. इसीप्रकार मैं (हिरण्यम्) = सोना, (अश्वम्) = घोड़ा (उत) = और (गाम् अजाम् अविम्) = गौ, बकरी व भेड़ (यत् किंच एव) = जो कुछ भी-अस्वीकरणीय को भी दरिद्रयवश (प्रतिजग्रह) = ग्रहण कर लें. उसे वह सर्वप्रद अग्रणी प्रभु सुहुत करने की कृपा करें। प्रभुकृपा से मैं व्रत ग्रहण करूँ कि 'अभक्ष्य को नहीं खाऊँगा तथा अन्याय्य धन का ग्रहण नहीं करूँगा'।

    भावार्थ -

    प्रभुकृपा से हमारे अन्नदोष व प्रतिग्रहण दोष दूर हों।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top