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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 71

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 71/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - अन्न सूक्त

    यन्मा॑ हु॒तमहु॑तमाज॒गाम॑ द॒त्तं पि॒तृभि॒रनु॑मतं मनु॒ष्यैः। यस्मा॑न्मे॒ मन॒ उदि॑व॒ रार॑जीत्य॒ग्निष्टद्धोता॒ सुहु॑तं कृणोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । मा॒ । हु॒तम् । अहु॑तम् । आ॒ऽज॒गाम॑। द॒त्तम् । पि॒तृऽभि॑: । अनु॑ऽमतम् । म॒नु॒ष्यै᳡: । यस्मा॑त् । मे॒ । मन॑: । उत्ऽइ॑व । रार॑जीति । अ॒ग्नि: । तत् । होता॑ । सुऽहु॑तम् ।कृ॒णो॒तु॒ ॥७१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्मा हुतमहुतमाजगाम दत्तं पितृभिरनुमतं मनुष्यैः। यस्मान्मे मन उदिव रारजीत्यग्निष्टद्धोता सुहुतं कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । मा । हुतम् । अहुतम् । आऽजगाम। दत्तम् । पितृऽभि: । अनुऽमतम् । मनुष्यै: । यस्मात् । मे । मन: । उत्ऽइव । रारजीति । अग्नि: । तत् । होता । सुऽहुतम् ।कृणोतु ॥७१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 71; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जो (हुतम्) = यज्ञिय अथवा (आहुतम्) = अयज्ञिय धन (मा) = मुझे (आजगाम्) = प्राप्त हुआ है, जो (पितृभिः दत्तम्) = मुझे अपने से बड़ों-पिता आदि से दिया गया है, जो (मनुष्यैः अनुमतम्) = मनुष्यों से अनुमत हुआ है, अर्थात् जिसमें समाज दोष नहीं देखती। (यस्मात्) = जिससे मे (मनः) = मेरा मन (उत् रारजीति इव) = खूब ही दीप्ता-सा होता है, (तत्) = उस सब धन को वह (होता अग्नि:) = सर्वप्रद अग्रणी प्रभु (सहतं कृणोतु) = सुहुत करने की कृपा करें। मैं उस धन का यज्ञों में विनियोग करके ही उपयोग करूँ।

    भावार्थ -

    हम प्राप्त धनों का यज्ञों में विनियोग करके ही उपयोग करें।

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