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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
सूक्त - कबन्ध
देवता - सान्तपनाग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - आयुष्य सूक्त
य ए॑नं परि॒षीद॑न्ति समा॒दध॑ति॒ चक्ष॑से। सं॒प्रेद्धो॑ अ॒ग्निर्जि॒ह्वाभि॒रुदे॑तु॒ हृद॑या॒दधि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । ए॒न॒म् । प॒रि॒ऽसीद॑न्ति । स॒म्ऽआ॒दध॑ति । चक्ष॑से । स॒म्ऽप्रेध्द॑: । अ॒ग्नि: । जि॒ह्वाभि॑: । उत् । ए॒तु॒ । हृद॑यात् । अधि॑ ॥७६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
य एनं परिषीदन्ति समादधति चक्षसे। संप्रेद्धो अग्निर्जिह्वाभिरुदेतु हृदयादधि ॥
स्वर रहित पद पाठये । एनम् । परिऽसीदन्ति । सम्ऽआदधति । चक्षसे । सम्ऽप्रेध्द: । अग्नि: । जिह्वाभि: । उत् । एतु । हृदयात् । अधि ॥७६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 76; मन्त्र » 1
विषय - अग्नि का समिन्धन
पदार्थ -
१. (ये) = जो (एनम्) = इस परमात्मरूप अग्नि के (परिषीदन्ति) = उपासन के लिए आसीन होते हैं तथा (चक्षसे) = आत्मदर्शन के लिए (समादधति) = इन्द्रियों को समाहित करते हैं, उस समय (हृदयात् अधि) = हृदयदेश (संप्रेद्धः) = दीप्त हुआ-हुआ (अग्नि: जिहाभिः उदेतु) = यह परमात्मरूप अग्नि उपासकों की जिहवाओं से उदित हो-उपासकों की जिलाओं से प्रभु के नामों का उच्चारण हो।
भावार्थ -
प्रभु-दर्शन के लिए हम प्रभु की उपासना करें, इन्द्रियों को विषयों से हटाकर उन्हें समाहित करें, वाणी से प्रभु के नामों का उच्चारण करें।
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