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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 76/ मन्त्र 3
सूक्त - कबन्ध
देवता - सान्तपनाग्निः
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - आयुष्य सूक्त
यो अ॑स्य स॒मिधं॒ वेद॑ क्ष॒त्रिये॑ण स॒माहि॑ताम्। नाभि॑ह्वा॒रे प॒दं नि द॑धाति॒ स मृ॒त्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽइध॑म् । वेद॑ । क्ष॒त्रिये॑ण । स॒म्ऽआहि॑ताम् । न । अ॒भि॒ऽह्वा॒रे । प॒दम् । नि । द॒धा॒ति॒ । स: । मृ॒त्यवे॑ ॥७६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्य समिधं वेद क्षत्रियेण समाहिताम्। नाभिह्वारे पदं नि दधाति स मृत्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । सम्ऽइधम् । वेद । क्षत्रियेण । सम्ऽआहिताम् । न । अभिऽह्वारे । पदम् । नि । दधाति । स: । मृत्यवे ॥७६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 76; मन्त्र » 3
विषय - सर्व जिहां मृत्युपदम्
पदार्थ -
१. (क्षत्रियेण) = [क्षत्रं बलम्] बल में उत्तम पुरुष से (समाहितम्) = हृदय में स्थापित की गई (अस्य) = इस 'सान्तपन अग्नि' प्रभु की (समिधम्) = दीप्ति को (यः) = वेद-जो जानता है, अर्थात् एक सबल पुरुष जब हृदय में प्रभु-दर्शन करता है तब (स:) = वह (अभितारे) = कुटिलता के मार्ग में (मृत्यवे) = मृत्यु के लिए (पदं न निदधाति) = पग नहीं रखता।
भावार्थ -
एक क्षत्रिय-भोगवृत्ति से ऊपर उठने के द्वारा सबल पुरुष हृदय में प्रभु की दीसि को देखता है। यह प्रभु-दर्शन करनेवाला व्यक्ति कभी कुटिलता के मार्ग में पग नहीं रखता। कटिलता को यह मृत्यु का मार्ग समझता है-'सर्व जिह्यं मृत्युपदम्।
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