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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 76

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 76/ मन्त्र 2
    सूक्त - कबन्ध देवता - सान्तपनाग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आयुष्य सूक्त

    अ॒ग्नेः सां॑तप॒नस्या॒हमायु॑षे प॒दमा र॑भे। अ॑द्धा॒तिर्यस्य॒ पश्य॑ति धू॒ममु॒द्यन्त॑मास्य॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्ने: । सा॒म्ऽत॒प॒नस्य॑ । अ॒हम् । आयु॑षे । प॒दम् । आ । र॒भे॒ । अ॒ध्दा॒ति: । यस्य॑ । पश्य॑ति । धू॒मम् । उ॒त्ऽयन्त॑म् । आ॒स्य॒त: ॥७६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेः सांतपनस्याहमायुषे पदमा रभे। अद्धातिर्यस्य पश्यति धूममुद्यन्तमास्यतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने: । साम्ऽतपनस्य । अहम् । आयुषे । पदम् । आ । रभे । अध्दाति: । यस्य । पश्यति । धूमम् । उत्ऽयन्तम् । आस्यत: ॥७६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 76; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. अने:-उस अग्रणी सांतपनस्य-अतिशयेन ज्ञान-दीत प्रभु के पदम्-वाचक पद को अहम्-मैं आयुषे-उत्कृष्ट जीवन के प्राप्ति के लिए आरभे उपक्रान्त करता हूँ-प्रभु के नामों का उच्चारण करता हूँ। २. अद्धाति:-[अद्धा प्रत्यक्षमतति, सततं ध्यानेन प्राप्नोति] ध्यान द्वारा प्रभु-दर्शन करनेवाला व्यक्ति यस्य-उस प्रभु के धूमम्-वासनाओं को कम्पित करनेवाले [धू कम्पने] ज्ञान को आस्यत: अपने मुख से उद्यन्तम्-उद्गगत होते हुए पश्यति-देखता है। हृदयस्थ प्रभु का ज्ञान इस अद्धाति के मुख से उच्चरित होता है। यह ज्ञान वासनाओं का संहार करनेवाला

    भावार्थ -

    हम 'सान्तपन अग्नि'-ज्ञानदीस प्रभु के नामों का उच्चारण करें। इसप्रकार हृदयस्थ प्रभु के दर्शन करें। यदि हम प्रभु का साक्षात्कार कर पाये तो हृदयस्थ प्रभु का ज्ञान हमारे मुखों से उच्चरित होगा।

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