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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
सूक्त - कबन्ध
देवता - जातवेदा अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्रतिष्ठापन सूक्त
य उ॒दान॑ट् प॒राय॑णं॒ य उ॒दान॒ण्न्याय॑नम्। आ॒वर्त॑नं नि॒वर्त॑नं॒ यो गो॒पा अपि॒ तं हु॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठय: । उ॒त्ऽआन॑ट् । प॒रा॒ऽअय॑नम् । य: । उ॒त्ऽआन॑ट् । नि॒ऽअय॑नम् । आ॒ऽवर्त॑नम् । नि॒ऽवर्त॑नम् । य: । गो॒पा: । अपि॑ । तम् । हु॒वे॒ ॥७७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
य उदानट् परायणं य उदानण्न्यायनम्। आवर्तनं निवर्तनं यो गोपा अपि तं हुवे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । उत्ऽआनट् । पराऽअयनम् । य: । उत्ऽआनट् । निऽअयनम् । आऽवर्तनम् । निऽवर्तनम् । य: । गोपा: । अपि । तम् । हुवे ॥७७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
विषय - आवर्तनं निवर्तनम्
पदार्थ -
१. (य:) = जो (गोपा:) = हमारी इन्द्रियों का रक्षक प्रभु (परायणम्) = परम स्थान मोक्ष को-ऊँचे से-ऊँचे लोकों को भी व्याप्त कर रहा है और (यः) = जो (न्यायनम् उदानट्) = निचले लोकों को भी व्यास कर रहा है, वह प्रभु ही (आवर्तनम्) = विविध योनियों में हमारे आवर्तन को तथा निवर्तनम् योनियों से निवृत्त होकर मोक्ष-प्राप्ति को व्याप्त करता है, (अपितं हुवे) = क्या मैं उसे पुकारूँगा? क्या मेरे जीवन में वह शुभ दिन आएगा जबकि मैं उस प्रभु का स्मरण करनेवाला बनूंगा।
भावार्थ -
वह शुभ दिन होगा जब मैं इन्द्रियों को विषयों से हटाकर उस प्रभ का स्मरण करनेवाला बनूंगा। वे प्रभु दूर-से-दूर व समीप-से-समीप हैं। वे ही हमें विविध शरीरों में जन्म व मोक्ष प्राप्त कराते हैं।
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