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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 77

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
    सूक्त - कबन्ध देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्रतिष्ठापन सूक्त

    जात॑वेदो॒ नि व॑र्तय श॒तं ते॑ सन्त्वा॒वृतः॑। स॒हस्रं॑ त उपा॒वृत॒स्ताभि॑र्नः॒ पुन॒रा कृ॑धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जात॑ऽवेद: । नि । व॒र्त॒य॒ । श॒तम् । ते॒ । स॒न्तु॒ । आ॒ऽवृत॑: । स॒हस्र॑म् । ते॒ । उ॒प॒ऽआ॒वृत॑: । ताभि॑: । न॒: । पुन॑: । आ । कृ॒धि॒ ॥७७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जातवेदो नि वर्तय शतं ते सन्त्वावृतः। सहस्रं त उपावृतस्ताभिर्नः पुनरा कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जातऽवेद: । नि । वर्तय । शतम् । ते । सन्तु । आऽवृत: । सहस्रम् । ते । उपऽआवृत: । ताभि: । न: । पुन: । आ । कृधि ॥७७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 77; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (निवर्तय) = हमें इस योनि-भ्रमण से लौटाकर मोक्ष में स्थित कीजिए। हमारे जीवनों में (ते) = आपके (शतम् आवृतः सन्तु) = सैकड़ों आवर्तन हों-हम आपका ही बारम्बा स्मरण करें। (ते) = आपके (सहस्त्रम्) = हज़ारों ही (उपावृतः) = समीप (आवर्तन) = सान्निध्य उपस्थान हों। हम सदा आपकी उपासना करें । २. (ताभिः) = उन आवर्तनों व उपावर्तनों से-नाम स्मरण व उपासना से (न:) = हमें (पुन:) = फिर (आकृधि) = अपने अभिमुख कीजिए।

    भावार्थ -

    हम प्रभु का स्मरण व उपासन करते हुए इस जन्म-मरण के चक्र में भटकने से बचकर प्रभु की ओर जानेवाले बनें।

     

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